पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/११२

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सचित्र महाभारत [पहला खण्ड जा बाल, राजसूय यज्ञ के अन्तिम स्नान के समय, मन्त्र से पवित्र किये हुए जल से भीगे थे उन्हीं का पाखण्डी दुःशासन के हाथ के स्पर्श से कलङ्कित होते देख, सभा में बैठे हुए सब लोग मार शोक के व्याकुल हो उठे। ___ जोर से खींचे जान से द्रौपदी के बाल बिखर गये और उसके शरीर पर का आधा वस्त्र कुछ खिसक पड़ा। इस पर वह लज्जा और क्रोध से जल कर बोली :- हे दुरात्मा ! इस सभा में इन्द्र के समान पराक्रमी हमारे गुरुजन बैठे हैं। उनके सामने तृ क्या समझ कर हमको इस अवस्था में ले आया ? तुझे इतना साहस हुआ कैसे ? यदि खुद इन्द्र भी तरी सहायता करें तो भी राजपुत्र लोग तुझे क्षमा न करेंगे। पर, यह देख कर कि दुःशासन को कोई मना नहीं करता, अभिमानिनी द्रौपदी फिर बाली :- हाय ! भरतवंशी लोगों के धर्म को धिक्कार है ! आज मैं समझ गई कि क्षत्रियां का पवित्र धर्म नष्ट हो गया । इसी से तो कुल-धर्म की मर्यादा टूटती हुई देख कर भी सभा के सब लोग कुछ नहीं कहते; चुपचाप बैठे हुए मेरा अपमान देख रहे है। यह कह कर रोती हुई द्रौपदी ने अपने पतियां की ओर आँख उठाई। राज्य, धन, मान, सम्मान श्रादि सब कुछ चले जाने से जो कुछ पीड़ा न हुई थी वही पीड़ा द्रौपदी की करुणापूर्ण दृष्टि से हुई। पाण्डवों के हृदय में विषम अन्ताह उत्पन्न हुआ-सा अन्ताह जिसका किसी तरह निवारण न हो सकता था। _____ कर्ण, अपना पहले का अपमान याद करके बड़े प्रसन्न हुए। शकुनि ने भी द्रौपदी का अपमान करने में सहायता दी। दुःशासन तो दासी ! दासी ! कह कर ज़ोर से हँस पड़ा। भीष्म कहने लगे :- हे सुन्दरी ! एक तरह से तो परवश आदमी किसी भी चीज का अपना धन कह कर दांव पर नहीं रख सकता। दूसरी तरह से स्त्री के ऊपर म्वामी का सदा ही अधिकार है। इसलिए हम ठीक तौर से नहीं कह सकते कि तुम धर्मानुसार दुर्योधन के अधीन हुई हो या नहीं। प्रियतमा द्रौपदी के इस अपमान से पागल होकर भीमसेन बोले :- हे युधिष्ठिर ! जुआरी आदमी घर की दासी तक को दाँव पर नहीं रखत; उस पर भी वे दया करते हैं। देखो, तुमने, बड़े कष्ट से मिले हुए धन को, और अपने अधीनस्थ हम लोगों को, एक एक करके, दूसरे को दे डाला। इस पर भी हमने क्रोध नहीं किया। पर तुम्हारा यह पिछला काम अत्यन्त निन्दनीय हुआ है। तम्हारे ही अपराध से नीच कौरवों ने इस असहाय स्त्री को क्लेश पहुँचाने का साहस किया है । जुआ खेलनेवाले तम्हार ये दोनों हाथ भस्म कर देने से तम्हारं इस पाप का प्रायश्चित्त हो जायगा। सहदेव ! जल्दी से आग ले आओ। यह सुन कर अर्जुन ने जेठे भाई भीम का तिरस्कार करके कहा :- हे आर्य ! तुमने तो पहले कभी ऐसे दुर्वाक्य नहीं कहे; जोश में आकर शत्रों के मन की बात न कर बैठना । वे तो यही चाहते हैं। देखो, बड़े भाई ने क्षत्रिय-धर्म के अनुसार ही जुआ खेला है। और धर्मानुसार ही सिर झुका कर हार मान ली है। भीमसेन बोले :-उन्होंने जरूर क्षत्रिय-धर्म के अनुसार काम किया है; इसी से तो हमने उनके दोनों हाथ अब तक नहीं जलाये। ___पाण्डवों और द्रौपदी की दुर्दशा देख कर धृतराष्ट्र के पुत्र विकर्ण को बड़ी दया आई। वे बोले :- हे नरेश्वरो ! तुममें से कोई भी द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर नहीं देता। यह काम धर्म के विरुद्ध है । पाञ्चाली बराबर गे रही है । पर सब बूढ़े बूढ़े कौग्व चुप बैठे हैं।