पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/११५

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पहला खण्ड ] पाण्डवों का राज्यहरण युधिष्ठिर ने भीम को रोक कर धृतराष्ट्र से हाथ जोड़ कर कहा :-- हे राजन् ! इस समय हम लोग आप ही के अधीन हैं। इसलिए जो आज्ञा हो सो करें । धृतराष्ट्र ने कहा :-हे. धर्मराज ! हारी हुई अपनी सब धन-सम्पत्ति लेकर तुम अपना राज्य करो। हे पुत्र ! हमारा इतना ही आग्रह तुमसे है कि तुम दुर्योधन के कटु वाक्य और निष्ठुर व्यवहार को अपने गुणों से क्षमा कर दो। यह सुनते ही कि धृतराष्ट्र के आज्ञानुसार पाण्डव लोग अपने हारे हुए धन-रत्न लेकर अपने राज्य को लौट जाने के लिए तैयार हैं, दुःशासन व्याकुल होकर मन्त्री सहित दुर्योधन के पास पहुँचा और रो रो कर कहने लगा ! हे आर्य ! बड़े कष्ट से जो कुछ हम लोगों ने इकट्ठा किया था, वृद्ध राजा ने वह सब नष्ट कर दिया। धन आदि सभी चीजें शत्रओं को दे दी गई। अब जो उचित ममझिए कीजिए। यह बात सुनते ही घमंडी दुर्योधन, कर्ण और शकुनि तरन्त धृतराष्ट्र के पास जाकर बोले :- महागज ! आपने यह क्या किया ? सताये हुए साँपों के बीच में रह कर क्या कोई बच सकता है ? क्या आप नहीं जानते कि क्रोधान्ध पाण्डव लोग रथ पर सवार होकर लड़ने की तैयारी कर रहे हैं ? हमने उन लोगों को बहुत हानि पहुँचाई है; उनका बहुत कुछ अपकार हमने किया है । क्या वे कभी उसे भूल सकेंगे? द्रौपदी के साथ दामियों का सा व्यवहार जो हमने किया है क्या वे कभी उसे सहन कर सकेंगे? यह बात सुनते ही डर से धृतराष्ट्र व्याकुल हो उठे । तब दुर्योधन ने फिर कहा :- इसलिए इस बार इस तरह काम करना होगा जिससे पाण्डवों के बदला लेने का रास्ता एकदम ही बन्द हो जाय । उनको जुए में फिर हराना होगा। पर ऐसी कोई चीज़ दाँव पर न लगाई जायगी जिससे क्रोध उत्पन्न हो। अब की बार यह बदा जाय कि जो हारे वह बहुत वर्ष तक वनवास करे । शकुनि अपनी चतुराई के द्वारा निश्चय ही जीतेंगे। इससे न तो इस समय ही कोई झगड़ा 'फमाद होगा और न आगे होने ही की संभावना रहेगी। इस प्रस्ताव से धृतराष्ट्र को धीरज हुआ। उन्होंने कहा :-- पुत्र ! तुम शीघ्र ही पाण्डवों को फिर जुआ खेलने के लिए बुलाओ! यह बात सुनते ही भीष्म, द्रोण, विदुर, अश्वत्थामा और धृतराष्ट्र के किसी किसी पुत्र आदि ने धृतराष्ट्र को मना करके कहा :- ____ महाराज ! बड़े कष्ट में शान्ति हुई है। बार बार वंशनाश करनेवाले झगड़े का बीज न बोइए। पर डरपोक, पुत्रवत्सल और मोह से अन्धं धृतराष्ट्र ने इस उपदेश की तरफ़ ध्यान न दिया । धर्मपरायण राजरानी गान्धारी पुत्रों के निष्ठुर और दुष्ट व्यवहार से एक तो वैसे ही महाशोकाकुल थीं, जब उन्होंने यह बात सुनी तब और भी व्याकुल हुई। उन्होंने कहा :- • महाराज ! दुर्योधन के पैदा होते ही सबने कहा था कि इसे त्याग दीजिए, पर तुमने वैसा न किया। आज उसका बुरा फल एक दफ़ देख चुके हो। क्या समझ कर तुम फिर इस कुलाङ्गार, कुमार्गी बालक की बात मानते हो ? यदि इसे अपना आज्ञाकारी नहीं बना सकते तो निकाल दो। पुल बँध जाने पर उसे क्या कोई अपनी इच्छा से थोड़े ही तोड़ता है ? हे महाराज ! पुत्रों के स्नेह के फंदे में पड़ कर बुझी हुई आग को जला कर कुलनाश का कारण न हो।