पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१३०

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सचित्र महाभारत [पहला खण्ड गये कि उन्हें खुद महादेवजी के दर्शन और स्पर्श का सौभाग्य प्राप्त हुआ है । उस समय आनन्द में मन होकर वे उनके पैरों पर गिर पड़े। __तपस्या के कारण दुबले पतल अर्जुन के युद्ध के उत्साह और दृढ़ता से महादेवजी बहुत प्रमन्न हुए। मुसकरा कर उन्होंने अर्जुन का हाथ पकड़ा और कहा-हमनं तुम्हें क्षमा किया। फिर उन्होंने अर्जुन को गले से लगा लिया। अर्जुन बोले : -भगवन् ! यदि आप प्रसन्न हुए हैं तो आनेवाले घोर युद्ध में भीष्म, द्रोण आदि वीरों के माथ युद्ध करने के योग्य हमें अस्त्र दीजिए। महादेवजी न.... "नथास्तु'–कहा। फिर पाशुपत अत्र दग्व कर उमकं छोड़ने और लौटाने के मन्त्र भी सिखलाये। उन्होंने अर्जुन से कहा :- हे अर्जुन ! तुम इसे सामान्य मनुष्यों पर कभी न चलाना। दुनिया में ऐसा काई नहीं जिसका यह न मार सके। बत हुए मर्य्य की तरह महादेवजी देखते देखत अर्जुन की निगाह में गायब हो गये। स्वयं शिवजी के दर्शन पाने में अपने को धन्य समझ कर अर्जुन थाड़ी देर तक चुपचाप खड़े रहे । इसी समय इन्द्रदेव, अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार, देवनाओं का माथ लिये हुए. ऐगवत पर चढ़ कर, वहाँ आये। तब उनके दाहिनी तरफवाले धर्म और बाई नरफवाले वरुण देव इन्द्र के मब दिव्यास्त्र अर्जुन को देकर बोले :- हे अर्जुन ! तुम क्षत्रियों में श्रेष्ठ हो। इन हथियारों के द्वारा तुम युद्ध के मैदान में सिंद्र लाभ करोगे। महाबली अर्जुन ने नम्रतापूर्वक और नियमानुसार उनके दिव्यास्त्रों को लेकर अपने का कृतार्थ माना। तब देवराज इन्द्र कहने लगे :- हे अर्जुन ! तुम्हाग काम तो हा गया। अब देवताओं का काम करने के लिए तुम्हें एक बार इन्द्रलोक चलना होगा। इसलिए तैयार हो जाव । हमारा सारथि मानलि शीघ्र ही तुम्हारे लिए ग्थ लावेगा । इम बीच में हम महर्षि लोमश को मर्त्यलोक में तुम्हारे भाइयों के पास भेजने है। वे तुम्हारी कार्यमिद्वि, कुशल-समाचार और देर का कारण प्रकट करके उनकी चिन्ता दूर कर देंगे। इधर काम्यक वन में रहनेवाले पाण्डवों ने अर्जुन के वियाग में दुखी होकर, उनकी गह दग्वने हुए वेदपाठ, जप, होम आदि करके अपने दिन बिताये। इस तरह कई वर्ष बीत गये। शिकार किये हुए मृगों के मांस और फल मूल आदि के द्वारा ब्राह्मणों को भोजन कराके तब वे लोग भोजन करने थे। अर्जुन की याद करके वे बहुत व्याकुल होते थे। सदा उनके लिए वे दु:ग्य किया करते थे । निर्जन और हर भरे स्थान में बैठे हुए युधिष्ठिर से एक दिन भीम कहने लगे :- हे धर्मराज ! हमारे उपकार के लिए, देखिए, अर्जुन कितना क्लश उठा रहे है । यह जान कर भी कि दिव्यास्त्र बड़े कठिन परिश्रम से मिलेंगे उन्होंने आपकी बात नहीं टाली। उन्हें हम लोग और अधिक दुःग्य क्यों दें ? आइए हम लोग उन्हें लिवा लावें और धृतराष्ट्र के पुत्रों को शीघ्र ही यमलोक भेजने का प्रबन्ध करें। तेरह वर्ष का वनवास जो हम लोगों ने अङ्गीकार किया है उसे यह काम करके पूरा करेंगे। कपटी आदमी के साथ यह इतना जरा सा असत्य व्यवहार अधर्म में नहीं गिना जा सकता। युधिष्ठिर ने भाई को बहुत तरह से धीरज देकर कहा :-- हे भीम ! तेरह वर्ष बीत जाने पर हम लोग निश्चय ही तुम्हारी इच्छा पूर्ण करेंगे। जब इतना यह लिया है तब कुछ और धीरज धगे। समय आने पर बिना कपट किये ही तुम शत्रओं का नाश