पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१३३

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पहला खण्ड ] पाण्डवों का वनवास १११ इसके बाद उन्हान यात्रियों को पितामह के वदितीर्थ में तपण कराया। फिर गया के संस्कार किये हुए महीधरतीर्थ को ले गये। इसके अनन्तर कौशिकी तीर्थ में घुमान हुए उनको गङ्गामागर-मङ्गम पर पहुँचाया। ____इस स्थान से समुद्र के किनारे किनारं वे दक्षिण की ओर गय। कुछ दिनों में उन्होंन वैतरणी नदीवाले कलिङ्ग देश को पार किया। धीरे धीरे दक्षिण सागर के किनारेवाले तीर्थो के दर्शन करके और वहाँ अर्जुन के वनवास-समय का यश सुन कर सब लोग बड़े प्रसन्न हुए। इसके बाद लोमश और अन्य साथियों के माथ पाण्डव लोग प्रभास तीर्थ में पहुँच । वहाँ उन्हें कुछ दिन विश्राम करने का अच्छा मौका मिला। यादव लोग पाण्डवों के आने की खबर पाने ही शीघ्र ही उनसे मिले और बहुत कुछ आदर-सत्कार किया। प्यारं पाण्डवों की दुर्दशा दग्व कर उदार यादव-बीर लाग बड़े दुखी हुए। बलदेव विलाप करने लगे :- हा धर्म ! युधिष्ठिर का जटा ग्खाय और मृगचर्म पहनं. और पापी दुयोधन को गज-सुग्य भागते हुए दंग्य कर अब तुम्हें काई भी मङ्गलजनक न समझेगा। हं कृष्ण ! अधर्म में मचि रखन- वाल भग्त-कुल के वृद्ध लोगों को धिक्कार है ! बूढ़ धृतराष्ट्र पग्लोक में पितरों के सामने इस सम्बन्ध में क्या उत्तर देंगे, क्या इमकी चिन्ता उन्हें नहीं है ? अर्जुन के प्यारं शिष्य सायकि बाल :- ह बलदेव ! जो होना था सा हो गया। अब शाक करने का समय नहीं है। इस विषय में युधिष्ठिर चाहं हम कह चाहे न कहें. आओ तुम्हारं साथ हम, कृष्ण, प्रद्युम्न आदि मिल कर प्रसिद्ध यादव-सेना की सहायता से धृतराष्ट्र-वंश का ध्वंस करकं पाण्डवों को उनका माम्राज्य लौटा दें। भाई- बन्धुओं के रहते हुए ये सत्यप्रतिज्ञ वीर अनाथों की तरह क्यों वनवास करें ? कृष्गा ने कहा :-हे वीरवर ! तुम इस बात को नहीं सोचते कि महाराज युधिष्ठिर दूसरं का जीना हुआ गज्य कैसे लेंगे। इसस ता यह अच्छा है कि अर्जुन को कैलाम से लाकर और पाण्डवों की महायता करके हम लोग उनके शत्रुओं का नाश करें। तब युधिष्ठिर नम्रतापूर्वक बाले :- है भाई ! तुम्हारी कृपा हमारे लिए बड़े गौरव की बात है। किन्तु कृष्ण हमको अच्छी तरह जानते है । उन्हें मालूम है कि राज्य के लाभ से हम अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़ सकतं। तेरह वर्ष का वनवास जो हमने अङ्गीकार किया है उसके पूरे हो जाने पर तुम्हारी सहायता से हम निश्चय ही मिद्विलाभ करेंगे । इसलिए हे यादववीर ! इस समय तुम लोग लौट जाव । ममय आने पर फिर मब लोग इकटें होकर सुख से रहेंगे। इसके बाद पाण्डव लोग फिर यात्रा के लिए निकलं। प्रभाम से उत्तर की ओर चलते हुए मरस्वती नदी पार करके वे सिन्धु तीर्थ को गये । वहाँ से काश्मीर देश का उत्तर की ओर छोड़ते हुए विपाशा नदी पार करके अन्त में वे हिमालय के सुबाहु राज्य में पहुँचे। वहाँ के गजा ने उनका बड़ा आदर-सत्कार किया। इससे कुछ दिन वहाँ उन्होंने विश्राम किया। वहाँ से पहाड़ी देश प्रारम्भ हुआ। उसका पार करना बहुत ही कष्टदायक और विपदों से भग हुआ था। वहाँ से चलते समय लामश ने कहा :- ___ हे पाण्डव ! न मालूम कितनी नदियों, नगरों, वनां, पर्वतां और जी लुभानेवाल तीर्था के दर्शन हमने किये हैं। अब इस दुर्गम गम्ते से चल कर कितने ही ऊँचे ऊँचे पहाड़ों को पार करके सुन्दर ग्मगीक आश्रमावाले गन्धमादन में पहुँचग। गम्न में पग पग पर मंकटों का सामना करना पड़ेगा। इसलिए बहुत सावधानी से चलना चाहिए। महर्षि लोमश की ये बात सुन कर युधिष्ठिर घबरा गये और कहने लगः-