पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१८६

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१६२ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड विराट और द्रुपदराज के बैठ जाने पर सब लोग अपने अपने आसनों पर बैठ गये। सुन्दर वेशों से विभूषित राजा लोग पहले तो थोड़ी देर तक तरह तरह की बात-चीत करते रहे। फिर काम प्रारम्भ करने के उद्देश से बुद्धिमान् कृष्ण की ओर देख कर चुप हो गये। इस तरह अनुमति पाकर कृष्ण पाण्डवों की भलाई-बुराई की आलोचना करने लगे। वे बोले :-हे नृपतिगण ! आप लोगों को मालूम ही है कि शकुनि ने दुष्टता करके धर्मराज को जुए में हराया और उनका सब कुछ छीन कर उनसे वनवास की प्रतिज्ञा कराई। यद्यपि पाण्डव लोग बलपूर्वक सारी पृथ्वी जीत सकते थे, तथापि उन्होंने केवल सचाई के खयाल से यह कठिन व्रत पालन किया । अब आप लोग ऐसी तरकीब सोचिए, जिससे कौरवों और पाण्डवों, दोनों, की भलाई हो और उनका धर्म भी बना रहे । यद्यपि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने इन लोगों को क्षत्रिय-धर्म के अनुसार बलपूर्वक नहीं हराया, किन्तु छल से इनका पैतृक राज्य छीन लिया है, तथापि ये लोग कौरवों की बुराई करना नहीं चाहते । ये लोग सिर्फ अपने बाहुबल से जीते हुए साम्राज्य ही को माँगते हैं। पर सब लोग जानते हैं कि धृतराष्ट्र के पुत्रों ने लड़कपन ही से किस तरह नाना उपायों से इनका राज्य छीनने की चेष्टा की है। इसलिए कौरवों का लोभ, युधिष्ठिर की धार्मिकता और इनका आपस का सम्बन्ध ध्यान में रख कर आप लोग यह स्थिर कीजिए कि अब क्या करना चाहिए। कृष्ण की ये पक्षपात-रहित बातें सुन कर बलदेव बड़े प्रसन्न हुए और आदर के साथ उनका अनुमोदन करके कहने लगे :- आप लोगों ने कृष्ण की बातें सुनीं ? वे धर्म के भी अनुकूल हैं और दुनियादारी से भी खाली नहीं । जैसी वे धर्मराज युधिष्ठिर के लिए लाभदायक हैं वैसी ही दुर्योधन के लिए भी। पाण्डव लोग सिर्फ आधा ही राज्य लेकर सन्तोष करना चाहते हैं । अतएव कौरवों को चाहिए कि वे उसे दे दें और सबके साथ मिल जुल कर सुख से रहें। हमारी राय यह है कि इस समय एक चतुर दूत दुर्योधन के पास भेजा जाय । वह महात्मा धृतराष्ट्र, कुरु-वंश में शिरोमणि भीष्म, महाबुद्धिमान् द्रोणाचार्य आदि के सामने दुर्योधन से बड़ी नरमी के साथ युधिष्ठिर का संदेशा कहे। कुल राज्य धृतराष्ट्र के पुत्रों ही के अधिकार में है। इसलिए उन लोगों से कोई रूखी बात कह कर उन्हें ऋद्ध करने की जरूरत नहीं। युधिष्ठिर भी सम्पत्तिशाली थे। परन्तु उन्होंने व्यसन में पड़ कर अपनी सम्पत्ति अपने ही दोष से खो दी। जुआ खेलने में वे निपुण नहीं हैं। तथापि, मित्रों के मना करने पर भी महाधूर्त शकुनि के साथ वे खेलने को राजी हो गये। धीरे धीरे खेल में वे इतने डूब गये कि उन्हें भले बुरे का ज्ञान न रहा। एक नादान आदमी की तरह वे एक के बाद एक दाँव बदते गये और अन्त में सब कुछ हार गये। इसके लिए दुर्योधन दोषी नहीं। इसलिए कोई बातूनी अादमी नम्रतापूर्वक दुर्योधन से मेल करने के लिए प्रस्ताव करे। बलदेव की बात समाप्त भी न होने पाई थी कि महावीर सात्यकि अत्यन्त क्रुद्ध होकर उठ खड़े हुए और कहने लगे :-- जिसका जैसा स्वभाव होता है वह वैसी ही बात कहता है । हे बलदेव ! इसी लिए हम तुमको तुम्हारे दुर्वाक्यों के लिए दोषी नहीं ठहराते । किन्तु जिन लोगों ने तुम्हारी ये बातें चुपचाप बैठे बैठे सुनी हैं उन्हीं पर हमें क्रोध आता है। ऐसा कौन आदमी है जो निर्दोष धर्मराज पर एक बार बे- खटके दोषारोप करके फिर उसी सभा में दुबारा बोल सके ? कपट जुआरी खेलने में बेईमानी करके इन नीतिज्ञ महात्मा को हरा दे, यह कोई धर्म की बात है ? यदि धर्मराज शकुनि को खेलने के लिए अपने घर बुलाते तो निस्सन्देह उनकी हार धर्म के अनुसार होती । किन्तु बात ऐसी नहीं है । दुर्योधन ने यह जान कर कि यदि कोई आदमी जुआ खेलने के लिए बुलाया जाता है तो वह इनकार नहीं कर सकता, शठतापूर्वक युधिष्ठिर को हराया है। फिर उसका मङ्गल कैसे हो सकता है ? इस समय पाण्डव