पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१८७

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पहला खण्ड] पाण्डवों का प्रकट होना और सलाह करना १६३ लोग तेरह वर्ष के बाद प्रतिज्ञा से छूट कर अपने पैतृक राज्य के पूरे तौर से अधिकारी हुए हैं। फिर वे कौरवों के सामने क्यों सिर झुकावें ? यदि कोई दूसरे का भी राज्य लेना चाहे तो भी माँगने की अपेक्षा उसे बलपूर्वक ले लेना ही अच्छा है । तब ये क्यों अपना पैतृक राज्य लेने के लिए दुर्योधन के हाथ जोड़ें ? कौरव लोग यदि धर्मराज का धर्म-सङ्गत प्रस्ताव न मानेंगे तो हम उनको अपने वश में करके धर्मराज के पैरों पर उनका सिर रखायेंगे । इसमें सन्देह नहीं। हम लोगों के एकत्र होने पर हमारे प्रबल प्रताप को कौन सह सकेगा ? द्रपद ने सात्यकि से कहा :-- हे वीर ! तुम्हारा कहना ठीक है। पाण्डवों को अपना पैतृक राज्य पाने का न्याय के अनुसार पूरा अधिकार है, इसमें सन्देह नहीं । परन्तु पाण्डवों के राज्यांश पर इस समय दुर्योधन का अधिकार है। उसे वे अपने मन से कभी न लौटावेंगे। बूढ़े राजा धृतराष्ट्र अपने पुत्र के विरुद्ध कोई काम नहीं कर सकते। दीनता के कारण भीष्म और द्रोण, और मूर्खता के कारण कर्ण और सकुनि, उन्हीं की हाँ में हाँ मिलावेंगे । इसलिए बलदेव का उपदेश हमारी राय में भी ठीक नहीं है । यदि हम लोग इस समय दुर्योधन से मीठी मीठी बातें कहेंगे तो वह पापी हम लोगों को निर्बल समझेगा। इसलिए हमारी समझ में सबसे पहले राजों के पास दूत भेज कर अपना बल बढ़ाना और सेना इकट्ठी करना चाहिए । जासूसों के द्वारा दुर्योधन हमारी काररवाई जरूर ही जान लेगा। इसलिए वह भी दूत भेजेगा। इस दशा में जिसका दूत पहले पहुँचेगा उसी का काम सिद्ध होने की अधिक सम्भावना है। अतएव इस काम में देर लगाना उचित नहीं। कृष्ण ने कहा :--द्रपदराज ने बहुत युक्तिपूर्ण उपदेश दिया है। इसलिए हम लोगों को निश्चिन्त होकर उन्हीं को सब काम सौंप देना चाहिए । जब तक सन्धि की बात चीत जारी रहे तब तक दोनों पक्षों के आत्मीय जनों को उसी में लगे रहना उचित नहीं। हम लोग विवाह के उपलक्ष्य में यहाँ आये थे। वह काम तो अच्छी तरह हो गया। अब हम लोग अपने अपने घर लौट चलें। यदि दुर्योधन न्याय के अनुसार मेल कर लें तो वंश-नाश होने का कोई कारण न रहेगा। और यदि वे लालच में आकर युधिष्ठिर की बात न मानें तो पाण्डव लोग पहले अन्य मित्रों से सहायता लेकर फिर हम लोगों को खबर दें। तब विराट ने सबका यथोचित सत्कार करके कृष्ण आदि यादवों को बिदा किया। इसके बाद वे युधिष्ठिर और अन्यान्य राजों की सलाह से कौरवों के साथ युद्ध की तैयारी करने लगे। राजा द्रुपद ने पहले एक दूत को कौरवों के पास भेजना निश्चित किया। इस काम के लिए अपने बुद्धिमान् पुरोहित को बुला कर उन्होंने कहा :- हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ ! आपको युधिष्ठिर और दुर्योधन का परिचय देने और उनके विवाद का हाल बताने की ज़रूरत नहीं । क्योंकि, आप सब जानते हैं। दुर्योधन आदि ने सीधे सादे पाण्डवों को बहुत ठगा है। धृतराष्ट्र भी इस बात को जानते हैं। धमोत्मा विदुर ने उस समय बार बार विनती की। पर उनकी बात पर किसी ने ध्यान न दिया। इसलिए इस बात की आशा नहीं कि वे अपनी इच्छा से धर्मराज को आधा राज्य लौटा देंगे। तब भी आप धृतराष्ट्र और अन्य बड़े बड़े कौरवों को प्रसन्न करने की चेष्टा कीजिएगा। यह निश्चय है कि इस विषय में वाणी द्वारा विदुर आपकी ज़रूर सहायता करेंगे। यदि भीष्म और द्रोण आदि पाण्डवों का विरोध न करें तो दुर्योधन अकेले कभी लड़ने की इच्छा न करेंगे। ऐसा होने से अपने पक्ष के बड़े बड़े योद्धाओं को फिर अपने वश में करने में दुर्योधन का जितना समय लगेगा उतने में हम लोग यथेष्ट बलसंग्रह कर लेंगे। द्रुपद का यह उपदेश सुन कर नीतिशास्त्र-विशारद पुरोहित ने राह का खर्च लेकर हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान किया।