पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१९२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६६ सचित्र महाभारत [पहला खण्ड शल्य ने कहा :-हे युधिष्ठिर ! तुम्हारी यह प्रार्थना हम अवश्य पूर्ण करेंगे । सभामण्डप में कर्ण ने निरपराध द्रौपदी का अपमान किया है । इसलिए कर्ण और अर्जुन के युद्ध-समय में हम कर्ण के जरूर सारथि बनेंगे और उनका तेज नष्ट करने का हम अच्छी तरह यत्न करेंगे। यह कह कर शल्य ने बिदा माँगी और सेना-सहित दुर्योधन के पास चल दिया। इधर अनेक देशों से राजा लोग बड़ी बड़ी सेनायें लेकर युधिष्ठिर की सहायता के लिए आने लगे। बहुतेरे तो विवाह ही के उपलक्ष्य में आये हुए थे। इनके सिवा चेदिराज धृष्टकेतु, वृष्णिवीर सात्यकि और विराटराज के मित्र राजा लोग बहुत सी चतुरंगिणी सेना ले लेकर आ पहुँचे । इस तरह पाण्डवों के पक्ष में सात अक्षौहिणी सेना इकट्टी हो गई । विराटराज के उपप्लव्य नगर में डेरे डाल दिये गये। इतनी बड़ी सेना लेकर राजों के साथ पाण्डव लोग सुख से समय की प्रतीक्षा करने लगे। ___ दुर्योधन के पक्ष में भगदत्त, भूरिश्रवा, शल्य, भोजराज, कृतवर्मा, सिन्धुनरेश, जयद्रथ और अन्य कई राजा लोग आये । इस तरह कौरवों की तरफ़ ग्यारह अक्षौहिणी सेना इकट्ठी हुई। इस प्रकार दोनों ओर युद्ध की तैयारियाँ हो रही थीं कि द्रुपदराज का पुरोहित राजा धृतराष्ट्र के पास पहुँचा । धृतराष्ट्र, भीष्म, विदुर आदि ने उसका यथोचित सत्कार किया। तब वह ब्राह्मण सभा में बैठे हुए बड़े बड़े कौरवों और राजपुरुषों से कहने लगा :- हे सभासद्गण ! आप लोग सनातन राज-धर्म अच्छी तरह जानते हैं। तथापि इस समय उसका स्मरण दिलाने की बड़ी ज़रूरत है । इसी से उसके सम्बन्ध में दो एक बातें हम कहना चाहते हैं। धृतराष्ट्र और पाण्डु एक ही पिता के पुत्र हैं। इसलिए पैतृक धन में दोनों का बराबर हक है । फिर इसका क्या मतलब कि पाण्डवों को निकाल करके धतराष्ट्र के पुत्र अकेले ही राज्य करें ? आप लोगों को यह भी मालूम होगा कि एक बार धृतराष्ट्र के पुत्रों ने पाण्डवों को मार तक डालने की तैयारी की थी; पर कृत- कार्य न हुए। फिर शकुनि की सहायता से छल करके उनका अपने बल से बढ़ाया हुआ राज्य छीन लिया। द्रौपदी-समेत पाण्डवों को बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञात वास करना पड़ा। उसमें उन्हें कैसे कैसे कष्ट भोगने पड़े, यह आप लोग अच्छी तरह जानते हैं। तथापि धृतराष्ट्र के पुत्रों के इन सब अन्यायों को भूल कर सबकी भलाई के लिए वे उनसे सन्धि करना चाहते हैं। अतएव दोनों तरफ की बातों का विचार करके आप लोग दुर्योधन को शान्त कीजिए। ऐसा कीजिए जिसमें व्यर्थ लोकहिंसा और वंश-नाश न हो । युधिष्ठिर का पक्ष लेकर लड़ने के लिए अनन्त सेना तैयार है। अर्जुन से बढ़ कर रण- चतुर और कृष्ण से बढ़ कर बुद्धिमान् कोई नहीं है। फिर क्या समझ कर दुर्योधन पाण्डवों से लड़ने को तैयार हैं ? इसलिए आप लोग धर्मानुसार पाण्डवों को उनका हिस्सा लौटा दीजिए। अभी सन्धि के लिए समय है। ब्राह्मण की बात सुन कर बुद्धिमान् भीष्म ने उसके प्रस्ताव की बहुत प्रशंसा की और कहने लगे :- हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ ! सौभाग्य की बात है कि पाण्डव लोग कुशल से हैं। और यह भी सौभाग्य की बात है कि बहुत सी सेना इकट्ठी करके भी वे धर्म पर जमे हुए हैं और बन्धु-बान्धवों से लड़ने की इच्छा न करके मेल करना चाहते हैं। आपने जो कुछ कहा वह कठोर होने पर भी सत्य है। इसमें सन्देह नहीं कि निश्चित वनवास के बाद वे अपने पहले राज्य के अधिकारी हुए हैं। अर्जुन के बराबर योद्धा भी तीनों लोकों में कोई नहीं है। दूसरे पक्षवालों की, विशेष कर अर्जुन की, प्रशंसा कर्ण से न सही गई । भीष्म की बातें समाप्त भी न होने पाई थीं कि उनका अनादर करके और दुर्योधन की तरफ़ देख कर वे पुरोहित से क्रोध-पूर्ण बातें कहने लगे :-