पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१९५

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दूसरा खण्ड ] शान्ति को चेष्टा १६९ काम किये ही-बिना हाथ पैर हिलाये ही-मनचीती बात होती हो तो कौन ऐसा मूर्ख है जो उसके लिए री करे हम तो यह समझते हैं कि नाना प्रकार की विषय-वासनायें उन उन विषयों का भोग करने से और भी बढ़ती हैं। भोग भोगने से तृप्ति नहीं होती। आग में आहुति डालने से आग बुझती नहीं; वह और भी प्रज्वलित होती है। यही हाल वासनाओं का है। यही कारण है जो इतना ऐश्वर्या पाकर भी-इतने भोग-विलास की सामग्री प्राप्त करके भी दुर्योधन का लोभ बढ़ता ही जाता है । लोभ के कारण दुर्योधन की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। इससे उन्होंने मन ही मन यह समझ रक्खा है कि सूत-पुत्र कर्ण से अर्जुन हार जायँगे। उन्होंने प्रत्यक्ष लड़ाई के मैदान में उतर कर देखा है कि एक नहीं छः रथियों ने अर्जुन से हार खाई है। तिस पर भी वे समझते हैं कि कर्ण को अर्जुन न जीत सकेंगे। यदि दुर्योधन की बुद्धि ठिकाने होती तो वे कभी ऐसा न समझने । कुछ भी हो, हम पर आज तक जो कुछ बीती है उसे हम भूले जाते हैं। हमें आज तक दुर्योधन ने जो क्लेश, दुःख और संताप पहुँचाया है उस पर हम धूल डालते हैं । इन्द्रप्रस्थ पहले हमारे ही अधिकार में था। उसी को लेकर हम सन्धि करने के लिए तैयार हैं। यह बात तो हम पहले भी कह चुके हैं। सञ्जय ने कहा :-हे धर्मराज ! आपका कहना बहुत ठीक है कि मोह के वशीभूत होने से दुर्योधन इस समय बिना युद्ध किये राज्य न छोड़ेगे। किन्तु आपतो धर्म की गति जानते हैं और यह भी जानते हैं कि राज-पाट का मोह बुरा होता है। फिर आप क्या समझ कर धृतराष्ट्र के पुत्रों का नाश करने पर उतारू हुए हैं ? यदि युद्ध करके राज्य छीन लेने का विचार था तो वनवास में इतना क्लेश आपने क्यों व्यर्थ उठाया ! तब भी आप की सहायता करनेवाले कम न थे। सब तरह की सहायता आपको मिल सकती थी। जो बन्धु-बान्धव इस समय आपका साथ देने को तैयार हैं वे चिरकाल से आप ही की तरफ़ हैं। दुर्योधन भी इस समय जितने बली हैं, उतने पहले न थे। उस समय तो धर्म-बुद्धि से प्रेरित होकर आप युद्ध से दूर रहे; अब भला क्या समझ कर आप उसे छोड़ने और जाति-द्रोह के पापपङ्क में गिरने जाते हैं ? यधिष्ठिर बोले :-हे सञ्जय ! धर्म ही श्रेष्ठ है, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु अपने राज्य का पालन करना और उसे शत्रु के हाथ से बचाना ही क्षत्रियों का मुख्य धम्मे है। इससे इस मामले में हम धर्म छोड़ते हैं या नहीं छोड़ते, इस बात का खूब बारीक विचार करके तब आप हमें दोषी ठहराइएगा। एक तरफ़ तो धर्म की रक्षा करना है। दूसरी तरफ़ युद्ध निवारण । इन दोनों बातों में से इस समय हमें कौन बात करना उचित है, इस विषय में परम चतुर श्रीकृष्णजी हमें उपदेश देने की कृपा करें। अधर्म से राज्य पाने की हमारी कदापि इच्छा नहीं । इससे जो श्रीकृष्ण कहेंगे हम वही करेंगे। तब कृष्ण ने कहा :- हे सञ्जय ! तुम्हारे मुँह से धर्मराज को धर्म का उपदेश शोभा नहीं देता। महासभा में द्रौपदी का अपमान होने पर, जिस समय उसने सहायता के लिए बार बार सभासदों से प्रार्थना की थी उस समय विदुर को छोड़ कर किसी और ने एक बात भी अपने मुँह से नहीं निकाली। दुःशासन को उस समय तुमने धर्म का उपदेश क्यों नहीं दिया ? तब तुम्हारा धर्मोपदेश कहाँ था ? कुछ भी हो, जैसे हम पाण्डवों की मंगलकामना करते हैं वैसे ही कौरवों की भी करते हैं। हम खुद ही चाहते हैं कि युद्ध का विचार छोड़ कर सन्धि-स्थापन करना चाहिए। यही बात दोनों पक्षों के लिए हितकर है। इससे अधिक और कुछ हम कहना चाहते ही नहीं। किन्तु, हे सञ्जय । सर्वस्व छोड़ कर धर्म-पालन करने का उपदेश हम युधिष्ठिर को नहीं दे सकते। संसार-यात्रा चलाने के लिए-संसार में रह कर अच्छी तरह जीवन-निवाह करने के लिए-कौरवों को मारे बिना पाण्डवों का काम चलता नहीं देख पड़वा । यदि कौरवों का वध किये बिना ही संसार-यात्रा निर्वाह करने का कोई उपाय निकल आवे तो इससे उत्तम और फा०२२