पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/१९९

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दूसरा खण्ड ] शान्ति की चेष्टा १७३ निस्तार कैसे हो सकता है ? देखिए, हमारा बल, पराक्रम और प्रभाव देख कर युधिष्ठर इतना डर गये हैं कि अन्त में पांच नगर पाने की लालसा छोड़ कर पाँच गाँव ही लेकर सन्धि करने पर राजी हैं । आपने हमारे प्रभाव और बल को अच्छी तरह नहीं जाना। इसी से आप शत्रुओं को हमसे अधिक बली और प्रभावशाली समझ रहे हैं। धृतराष्ट्र ने देखा कि पुत्र हमारा बड़े ही विकट मोहजाल में फँसा है। इससे उनको बहुत दुःख हुआ। वे बोले :- हे कौरव-वर्ग! हम बार बार विलाप करते हैं, तथापि हमारे मूर्ख पुत्र युद्ध करने की इच्छा नहीं छोड़ते । बेटा दुर्योधन ! क्या समझ कर तुम सारी पृथ्वी पर अधिकार करने की बुरी अभिलाषा रखते हो ? उसकी अपेक्षा उचित यह है कि पाण्डवों का राज्य का जो अंश मिलना चाहिए उसे देकर सुखपूर्वक अपना राज्य करो ! पाण्डव लोग बड़े धर्मात्मा हैं। उन्होंने जो प्रस्ताव किया है वह बहुत ही उचित है। उनकी बात में, उनकी शर्त में, अन्याय का लेश भी नहीं है। हम लोगों ने जो पीड़ा उन्हें पहुँचाई है और जो अत्याचार उन पर किये हैं, उन्हें भूल कर वे सिर्फ इसलिए नरमी का बर्ताव कर रहे हैं जिसमें जाति-क्षय होने से बच जाय । उनके इस धर्मबल को देख कर स्वयं देवता भी उनकी सहायता करेंगे। यदि हम पाप-युद्र में लिप्त होंगे तो कुरु-कुल का जड़ से नाश हुए बिना न रहंगा । हे पुत्र ! दिन-रात इसी चिन्तारूपी अग्नि में जलते रहने के कारण हमें नींद नहीं आती और हमारी विह्वलता बढ़ती जाती है । यही कारण है जो हम सन्धि करने के लिए इतने उत्सुक हैं। दुर्योधन तो स्वभाव ही से क्रोधी था। पिता की बात सुन कर क्रोध के मारे वह और भी जल उठा और कहने लगा :- हे तात ! काम, क्रोध, माह आदि विकारों को जीत कर ही देवताओं ने देवत्व पाया है। इससे हम मनुष्यों के लड़ाई-झगड़ों में वे क्यों किसी का पक्षपात करने लगे। हम भी तो नियमपूर्वक प्रतिदिन देवताओं की पूजा-अर्चा करते हैं। उसमें किसी तरह की कमी नहीं होने देते। फिर, देवता लोग केवल पाण्डवों की सहायता करेंगे, यह कैसे सम्भव हो सकता है ? पाण्डव भी मनुष्य हैं, हम भी मनुष्य हैं। पर हम पाण्डवों से अधिक बलवान हैं। फिर क्या समझ कर आप हमेशा पाण्डवों ही की जीत की शंका करते हैं ? हमें तो उनके जीत जाने का कोई कारण नहीं देख पड़ता। अन्य सहायता और सामग्री की बात जाने दीजिए। हम केवल कर्ण को लेकर पाण्डवों को पूरे तौर से हरा सकते हैं। हे राजन् ! युद्ध प्रारम्भ होने पर पाण्डवों की तरफ़वाले वीरों की मृत्युवार्ता जब आप सुनेंगे तब आप समझेंगे कि जो कुछ मैं कहता था सच कहता था। धृतराष्ट्र को उत्तर देने का अवसर न देकर महावीर कर्ण बीच ही में बोल उठे । उनके उत्तर से दुर्योधन आदि बड़े प्रसन्न हुए। कर्ण ने दुर्योधन की एक एक बात का समर्थन किया । अन्त में उन्होंने कहा :- हे महाराज ! दिव्य-अस्त्र-विद्या के सबसे बड़े ज्ञाता महात्मा परशुराम हैं। उन्हीं से हमने अत्र- शिक्षा पाई है। इस युद्ध में प्रधान प्रधान पाण्डवों को मारने का बीड़ा हमीं उठाते हैं। कर्ण ने जो अपने मुँह अपनी बड़ाई की वह महात्मा भीष्म से न सही गई। उन्होंने इस व्यर्थ डींग हाँकने ही को दुर्योधन के अनुचित साहस का कारण समझा। यही नहीं, किन्तु सारे अनर्थ की जड़ उन्होंने इसी को ठहराया। इस कारण उन्हें बेहद क्रोध हो आया । क्रोध से उनका मुंह लाल हो गया। उन्होंने कर्ण को बहुत फटकारा; उसकी बड़ी निन्दा की । वे बोले :- हे कर्ण ! काल ने तुम्हारी बुद्धि हर ली है। इसी से तुम इस तरह का प्रलाप करते हो । तुम्हें जो इस बात का अहंकार है कि हम पाण्डवों का संहार करेंगे सेा व्यर्थ है। इस प्रकार की अहंकारपूर्ण बातें