पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२१२

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१८४ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड देकर उनके साथ सन्धि-स्थापन करने की हम हृदय से आपको सलाह देते हैं। इसके सिवा हमें और कुछ नहीं कहना । सभासदों में से यदि किसी को और कुछ कहना हो तो कहे । कृष्ण के चुप हो जाने पर सबने मन ही मन उनके प्रस्ताव की प्रशंसा की; परन्तु, किसी ने मुँह से कुछ भी कहने का साहस नहीं किया। इसके अनन्तर जो ऋषि लोग सभा में बैठे थे उन्होंने नाना प्रकार की कथायें और उपदेश-वाक्य कह कर सबको, विशेष कर के दुर्योधन को, शान्ति स्थापित करने की जरूरत दिखलाई । अन्त में महर्षि कण्व ने कहा :-- हे गान्धारीनन्दन ! पाण्डव लोग देवताओं के वर-पुत्र हैं; देवताओं ही की कृपा से पाँचों पाण्डवों की उत्पत्ति हुई है । उन्हें युद्ध में कोई नहीं जीत सकता । इससे तुम युद्ध करने की इच्छा छोड़ कर कृष्ण के द्वारा सन्धि-स्थापन कराकर कुरुकुल की रक्षा करो। दुर्योधन को भला ऐसा कड़वा उपदेश कैसे सहन हो सकता था ? वे इस तरह की बातें और अधिक देर तक न सुन सके । भौंहें टेढ़ी करके कर्ण की तरफ़ उन्होंने हँस कर देखा । इस प्रकार ऋषियों की बात का अनादर करते हुए उन्होंने अपनी जाँच पर जोर से एक थपेड़ा मारा और कहा :- हे ऋषिगण ! परमेश्वर ने हमें पैदा करके जैसी बुद्धि दी है वैसा ही काम हम करते हैं। हमारे भाग्य में जो कुछ है, वही होगा । इसलिए आप लोग अब और वृथा बकवाद न करें। ___पुत्र के मुँह से ऐसा उद्दण्ड और अशिष्टता से भरा हुआ उत्तर सुन कर धृतराष्ट्र व्याकुल हो उठे। उन्होंने कहा :- हे महर्षिगण ! आपने जो उपदेश दिया वह सचमुच ही बहुत अच्छा है। किन्तु, उसके अनुसार काम करना हमारी शक्ति के बाहर है। इसके बाद कृष्ण से कहा :- हे कृष्ण ! आपकी बात उचित है, सुखदायक है, और धर्म-संगत भी है; इसमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु, हम स्वाधीन नहीं; जो बात हम करना चाहते हैं वह नहीं होती। इससे तुम दुर्योधन को समझाने का यत्र करो। वह हमारी किसी की बात नहीं सुनता। तुम यदि उसे शान्त कर सको तो बड़ा काम हो जाय। राजा धृतराष्ट्र के कहने के अनुसार कृष्ण ने दुर्योधन की तरफ़ देखा और उनके सामने मुँह करके इस प्रकार वे मधुर वचन कहने लगे :- भाई ! तुम जैसा व्यवहार करते हो वह तुम्हारे वंश के योग्य नहीं । तुम्हारे इस बुरे व्यवहार से जो अनर्थ होनेवाला है उसे निवारण करके अपने भाइयों और मित्रों का कल्याण करो। हे दुर्योधन ! पाण्डवों के साथ सन्धि-स्थापन करने की तुम्हारे सभी गुरुजनों की सलाह है। इससे तुम्हें जरूर उनका कहना मानना चाहिए । देखो, बालकपन से पाण्डवों ने तुम्हारे द्वारा अनेक प्रकार के दुःख पाये हैं; तिस पर भी उन्होंने तुम्हारे ऊपर क्रोध नहीं किया। इससे तुम्हें भी उन पर प्रसन्न होना चाहिए। युद्ध में जीतने की आशा तुम वृथा ही करते हो। जिन लोगों के ऊपर भरोसा करके पाण्डवों को तुम जीतना चाहते हो वे किसी तरह पाण्डवों की बराबरी नहीं कर सकते । तुम यदि सचमुच यह समझते हो कि युद्ध में तुम अर्जुन को हरा दोगे तो व्यर्थ और लोगों का नाश करने से क्या लाभ है ? तुम अपने पक्ष में से किसी एक वीर को अर्जुन के साथ युद्ध करने के लिए चुन लो। उन दोनों के युद्ध का जैसा परिणाम हो उसी के अनुसार दोनों पक्षों की हार-जीत का निश्चय हो । यदि इस बात के मान लेने का साहस न हो तो, व्यर्थ आशा छोड़ कर, राज्य का जो अंश पाण्डवों को मिलना चाहिए उसे उनको दे दो। इससे तुम्हारे मित्रों को भी आनन्द होगा और तुम खुद भी सुख से रहोगे।