पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२१४

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१८६ सचित्र महाभारत . [दूसरा खण्ड राज्य का आधा अंश दे दिया था। परन्तु हमारे जीते रहते अब वे उसे फिर नहीं पा सकते। अधिक तो क्या, सुई की नोक से जितनी ज़मीन छिद सकती है उतनी भी हम पाण्डवों को देने के नहीं। दुर्योधन के मुँह से ऐसी कठोर बात सुन कर कृष्ण को क्रोध हो पाया। उन्होंने दुर्योधन का उपहास करते हुए इस प्रकार उत्तर दिया : हे दुर्योधन ! तुम जो वीरों के योग्य शय्या पर सोने की इच्छा रखते हो, सो वह इच्छा, समय आने पर, ज़रूर ही पूर्ण होगी। हे भरत-कुल के कलङ्क! लड़कपन में तुमने भीमसेन को विष दिया; पाण्डवों को वारणावत् नगर में भेज कर माता-सहित उन्हें जला देने की चेष्टा की; द्रौपदी को सभा में लाकर उसका जैसा अपमान तुमने किया वैसा अपने आत्मीय का तो क्या कोई शत्र का भी नहीं करता ! तुमने जुआ खेलने में कपट करके पाण्डवों का मौरूसी राज्य छीन लिया और इस समय, जब पाण्डव अपनी की हुई प्रतिज्ञा पूरी करके उसे धर्म से लौटा पान के अधिकारी हुए तब, तुम उसे लौटाते नहीं। तुम माता-पिता और सारे गुरुजनों की बात नहीं सुनते, और उलटा कहते हो कि बहुत विचार करने पर भी हमें अपना दोष नहीं दिखाई पड़ता । परन्तु, हमें विश्वास है, जो राजा लोग यहाँ बैठे हैं वे इस मामले को ऐसा नहीं समझेंगे। ____ कृष्ण इस तरह कह ही रहे थे कि इतने में दुःशासन उठ कर दुर्योधन के पास आये और कहने लगे : हे राजन् ! सभा में जो लोग बैठे हैं उन सबका मन क्रम क्रम से तुम्हारे विरुद्ध होता जा रहा है। इसलिए तुम्हें यहाँ अब और अधिक देर तक न बैठना चाहिए। यह सुन कर दुर्योधन को कुछ शङ्का सी हुई । उन्होंने बड़ी ही अशिष्टता से कर्ण, शकुनि और दुःशासन को अपने साथ लिया और सभा से उठ कर चल दिया। तब कृष्ण कहने लगे : हे महात्मा जन ! बड़े बूढ़े कौरवों ने दुर्योधन को पहले ही से अपने काबू में न रख कर बहुत बुरा किया। इस समय कुल को क्षय होने से बचाने का एक मात्र उपाय जो हम देखते हैं वह सुन लीजिए। देखिए, हमारे मामा दुरात्मा कंस ने पिता के जीवित रहते ही सारा भोज-राज्य अपने अधिकार में कर लिया। यह देख कर सारे बन्धु-बान्धवों ने उसका साथ छोड़ दिया। सब उससे अलग हो गये । अन्त में उसे युद्ध में मारने के लिए हम लाचार हुए। उस एक कंस को छोड़ देने से, देखिए, हम सब यादव लोग आदन्दपूर्वक रहते हैं। आप भी उसी तरह यदि दुर्योधन को छोड़ दें तो कौरवों का नाश होने से बच जाय। नहीं तो कौरवों की रक्षा का और कोई उपाय नहीं। यदि आप दुर्योधन, कर्ण, शकुनि और दुःशासन को पकड़ कर पाण्डवों के हवाले कर देंगे तभी सन्धि स्थापित होकर क्षत्रियों के कुल की रक्षा हो सकेगी, अन्यथा नहीं। कृष्ण के इस प्रस्ताव से धृतराष्ट्र बहुत डर गये । वे व्याकुल हो उठे । उन्होंने विदुर से कहा : बेटा! गान्धारी बहुत दूरन्देश हैं । उनके पास जाकर तुरन्त उन्हें सभा में ले आयो। यदि माँ के समझाने से दुर्योधन की बुद्धि ठिकाने आ जाय तो एक बार वे भी कोशिश कर देखें । हाय ! दुर्योधन की इस घोर मूर्खता का, न मालूम, क्या फल होगा। राजा की आज्ञा पाकर विदुर तुरन्त यशस्विनी गान्धारी के पास गये और उन्हें सभा में ले आये । उनके श्रा जाने पर धृतराष्ट्र बोले :-- हे गान्धारी ! तुम्हारा पुत्र दुर्योधन बड़ा दुःशील है। ऐश्वर्य के लोभ से वह पागल हो रहा है। उसका भले बुरे का ज्ञान जाता रहा है। गुरुजनों की बात पर वह जरा भी ध्यान नहीं देता। उसकी इस मूर्खता से हम लोगों पर बहुत भयङ्कर विपद आनेवाली है । अभी कुछ ही देर हुई, वह अपने हितचिन्तकों के उपदेश को न मान कर सभा से चला गया है । भला इस अशिष्टता का कहीं ठिकाना है।