पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२१७

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दूसरा खड] शान्ति की चेष्टा १८९ हमारा सारा प्रेम उन्हीं के ऊपर है। अनन्त धन-रत्न की तो बात ही नहीं, सारे भूमण्डल का राज्य पाने पर भी हम उन्हें छोड़ देने की इच्छा नहीं कर सकते । इसके सिवा, हे वासुदेव ! इतने दिनों से हम दुर्योधन का दिया हुआ राज्य बिना किसी विघ्न-बाधा के अकण्टक भोग रहे हैं । दुर्योधन ने हमारे साथ सदा ही प्रीति-पूर्ण व्यवहार किया है। हमारे ही भरोसे वे पाण्डवों के साथ विरोध करने पर उतारू हुए हैं । इससे इस समय लोभ या भय के कारण हम उनकी इच्छा के विरुद्ध काम करके उन्हें निराश नहीं करना चाहते । एक बात और भी है । वह यह कि यदि इस युद्ध में हम अर्जुन का सामना न करेंगे, तो हम दोनों की कीर्ति में बट्टा लगेगा । हे यादवनन्दन ! इसमें सन्देह नहीं कि ये सब बातें आपने हमारे ही हित के लिए कही हैं; किन्तु, हमारी आपसे प्रार्थना है कि हमारे जन्म का हाल श्राप पाण्डवों से न कहें । हे कृष्ण ! यदि धर्मात्मा युधिष्ठिर को यह मालूम हो जायगा कि हम कुन्ती के जेठे पुत्र हैं तो तत्काल ही वे राज्य छोड़ देंगे। उनका राज्य पाने पर हम उसे दुर्योधन को दिये बिना न रह सकेंगे। हमें उसे दुयोधन को देना ही पड़ेगा। किन्तु, दुर्योधन को इस तरह राज्य मिलना उचित नहीं। इससे हम चाहते हैं कि युधिष्ठिर ही चिरकाल तक राज्य करें। कर्ण की बात समाप्त होने पर कृष्ण ने मुस्करा कर कहा :- हे कर्ण! हमने तुम्हें इतना बड़ा राज्य दे डालना चाहा,. पर तुम उसे नहीं लेते। इससे युद्ध हुए बिना अब नहीं रह सकता। तुम लौट कर भीष्म, द्रोण श्रादि से कह देना कि यह महीना युद्ध के लिए बड़े सुभीते का है। खाने-पीने की चीजें और लकड़ी, चारा आदि सामान आसानी से मिल सकता है; जल भी बहुत है; रास्ते भी साफ़ हैं; कहीं कीचड़ नहीं । आज के सातवें दिन अमावास्या होगी। उसी दिन युद्ध का प्रारम्भ हो तो अच्छा है । तुम सब लोग जब युद्ध के मैदान में आखिरी शय्या पर सोने की प्रार्थना करते हो तब वही होगा, इसमें सन्देह नहीं । जितने राजा दुर्योधन के पक्षपाती हैं, वे भी सब युद्ध में प्राण छोड़ कर सद्गति पावेंगे। कर्ण ने कहा :-हे कृष्ण ! हम आपसे बिदा होते हैं। युद्ध के मैदान में फिर आपका दर्शन होगा। उसके अनन्तर क्षत्रियों का संहार करनेवाले इस महायुद्ध से या तो बच कर ही आपसे मिलेंगे, या स्वर्ग में यथा-समय फिर आपसे भेंट होगी। यह कह कर कर्ण ने कृष्ण को गले से लगाया और उदास होकर अपने रथ पर सवार हो हस्तिनापुर लौट गये। शान्ति के लिए आखिरी चेष्टा करके भी कृष्ण को सफलता न हुई। इस कारण उन्हें विफल- मनोरथ होकर उपप्लव्य नगर को लौट जाना पड़ा। उन्होंने सारथि को आज्ञा दी कि बहुत जल्द रथ हाँको । आज्ञा पाते ही सारथि ने घोड़ों की रास हाथ में ली और वे हवा हो गये। इधर कौरवों की सभा भङ्ग होने पर शान्ति की आशा नष्ट हो जाने से विदुर को बड़ी चिन्ता हुई। उदास-मन इधर उधर घूमते घामते वे कुन्ती के घर पहुंचे। वहां उन्होंने अपनी दुःख-कहानी कुन्ती से इस तरह कहनी आरम्भ की :- - हे कुन्ती! तुम तो जानती हो कि हम युद्ध के कहाँ तक विरोधी हैं । शान्ति के लिए जहाँ तक हो सका मन, वच, कर्म से हमने चेष्टा की; परन्तु सफलता न हुई। धर्मात्मा पाण्डवों ने सब कहीं से सब तरह की सहायता पाकर भी एक महादीन की तरह सन्धि कर लेने के लिए प्रार्थना की; परन्तु, दोधन ने उनकी बात न मानी। अब घोर यद हए बिना नहीं रह सकता । इस युद्ध का फल कहाँ तक शोचनीय होगा, इस युद्ध के कारण क्षत्रिय-जाति को कितनी घोर विपदाओं का सामना करना पड़ेगा, दिन रात इसी चिन्ता में रहने के कारण हमारी नींद-भूख जाती रही है। विदुर की बात सुन कर कुन्ती को महादुःख हुआ । एक लम्बी साँस लेकर वे मन ही मन