पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२२०

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१९२ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड हे धर्मराज ! तुमने जिन महाबली और महापराक्रमी वीरों को सेना का अध्यक्ष बनाया है वे सभी शत्रओं पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। जिस समय वे युद्ध के मैदान में उतर पड़ेंगे उस समय दुर्योधन और उनके सहायक राजों की तो कुछ बात ही नहीं, देवताओं के राजा खुद इन्द्र भी उन्हें देख कर डर जायेंगे। तथापि, सब सेनाध्यक्षों के ऊपर एक प्रधान सेनापति का होना बहुत जरूरी है। हमारा भी यही मत है कि धृष्टद्युम्न ही सब तरह प्रधान सेनापति होने के योग्य हैं। कृष्ण की सलाह के अनुसार धृष्टद्युम्न ही सात अक्षौहिणी सेना के अध्यक्षों के ऊपर प्रधान सेनापति नियत हुए। तब यह बात सबसे कह दी गई। इसे सुन कर योद्धाओं को बड़ा आनन्द हुआ। सबने धृष्टद्युम्न का प्रधान सेनापति नियत किया जाना पसन्द किया। एक काम-और सबसे बड़ा काम- अर्जुन को भी दिया गया। अर्थात् पाण्डवों की जितनी सेना थी और जितने सेनाध्यक्ष थे उन सबके काम की देख भाल का भार उनके ऊपर रक्खा गया । अर्थात् वे सबसे बड़े अफसर नियत हुए। इसके अनन्तर अपना अपना काम करने के लिए सब लोगों को उतावले देख युधिष्ठिर ने युद्ध- यात्रा की आज्ञा दे दी। उनकी आज्ञा पाते ही सब लोग लोहे के कवच शरीर पर धारण करके अपने अपने काम में लग गये । थोड़े ही समय में घोड़ों का हिनहिनाना, हाथियों की चिग्घार, रथों की घरघराहट और इधर उधर दौड़नेवाले योद्धाओं की--"जल्दी करो; देर न होने पावे; देखा, कुछ रह न जाय"-- इत्यादि चिल्लाहट सुनाई पड़ने लगी। इस प्रकार तूफान आये हुए महासागर की तरह उस प्रचण्ड सेना में सब तरफ़ कोलाहल होने लगा । शङ्ख और दुन्दुभि आदि की प्रचण्ड ध्वनि यह बतलाने लगी कि योद्धाओं के आनन्द का पार नहीं है। जिस समय चारों ओर से यह महाकोलाहल हो रहा था उस समय अपने डेरे के भीतर उदास बैठे हुए युधिष्ठिर ने एक लम्बी साँस लेकर भीम और अर्जुन से कहा :- हे भाइयो ! कुरु-कुल के जिस क्षय को बचाने के लिए हमने इतने दिनों तक वन में वास किया और सैकड़ों प्रकार के बड़े बड़े कष्ट सहे, वही अनर्थ आज होना चाहता है। अब वह किसी तरह नहीं निवारण किया जा सकता। इसी कुल-नाश का निवारण करने के लिए हमने तुम सबको दुःसह कष्ट दिये; पर वे सब कष्ट इस समय व्यर्थ हो रहे हैं। इतना यत्न करने पर भी इतनी चेष्टा करने पर भी इस घोर युद्ध के रोकने का कोई उपाय नहीं देख पड़ता। अपने कुल के पूज्य पुरुषों के साथ किस तरह हम युद्ध करेंगे ? उनके ऊपर हाथ उठाना हमें कदापि इष्ट नहीं । अपने ही घर के बड़े बूढ़े गुरुजनों का संहार करके शत्रुओं को जीतना क्या हम कभी भी अपना कर्तव्य समझ सकते हैं ? धर्मराज को अत्यन्त दुखी देख अर्जुन ने कौरवों की सभा में होनेवाली वे सब बातें फिर कह सुनाई जिनका वर्णन कृष्ण ने हस्तिनापुर से लौट कर किया था। माता कुन्ती के संदेश का भी उन्होंने स्मरण दिलाया। कृष्ण ने मुस्करा कर अर्जुन की बात का समर्थन किया। उन्होंने कहा :-यह समय सोच करने और उदास होने का नहीं है । क्षत्रियों का जो कर्तव्य है उसी का तुम्हें इस समय पालन करना चाहिए। इससे युधिष्ठिर की उदासीनता जाती रही और जी कड़ा करके वे समयोचित काम में लग गये। पहले रनिवास की रक्षा के लिए एक योग्य स्थान निश्चित करके दास दासियों के साथ द्रौपदी वहाँ भेज दी गई। उनके रहने के लिए एक ऐसा मकान दिया गया जिसमें किसी तरह का डर न था । वहाँ हर घड़ी चौकी पहरा देने और देख-भाल रखने के लिए कुछ योद्धाओं की एक टोली भी नियत कर दी गई। इस प्रकार तैयारियां करते वह रात बीत गई। प्रात:काल सब लोगों ने ठाट-बाट से करु- क्षेत्र की ओर प्रस्थान किया। सेना के अध्यक्ष लोग अपनी अपनी सेना के आगे चले । रथ, घोड़े, हाथी,