पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१९४ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड कृप, द्रोण, शल्य, जयद्रथ, काम्बोजनरेश सुदक्षिण, भोजराज कृतवर्मा, अश्वत्थामा, कर्ण, भूरिश्रवा, शकुनि और बाह्निक-इन ग्यारह महारथियों को दुर्योधन ने सेनाध्यक्ष के पद पर नियत किया। इन सब वीरों की उन्होंने बड़ी प्रशंसा की; उनके उत्साह को खूब बढ़ाया; और हर तरह से उनका आदर- सत्कार करके उन्हें प्रसन्न किया। इससे वे लोग दुर्योधन की तरफ होकर जी-जान से युद्ध करने के लिए तैयार हुए। इस प्रकार युद्ध-सम्बन्धी उद्योग समाप्त होने पर सब सेनाध्यक्षों को साथ लेकर दुर्योधन, महात्मा भीष्म के पास गये और हाथ जोड़ कर कहने लगे :- हे महावीर ! हमारी सेना युद्ध के लिए तैयार तो है; परन्तु एक योग्य सेनापति के बिना वह तितर बितर हो रही है। आप सब तरह से हमारे शुभचिन्तक हैं। हमारे शत्र भी आपको वध नहीं कर सकते। आप उनके हाथ से भी वध किये जाने के पात्र नहीं । इससे कृपा करके आप ही हमारी सेना के सेनापति हूजिए। आप यदि हमारी रक्षा में तत्पर होंगे तो देवता भी हमें नहीं जीत सकते । ___ भीष्म ने कहा :-हे महाबाहु ! हम तुम्हारा कहना मानने को तैयार हैं। किन्तु जिस तरह हम तुम्हें प्यार करते हैं उसी तरह पाण्डवों को भी प्यार करते हैं। हम तुम्हारे आश्रय में हैं हम तुम्हारे यहाँ रहते हैं। इससे हम तुम्हारी तरफदारी करने के लिए लाचार हैं। तथापि हम एक नियम करना चाहते हैं। वह नियम यह है कि मौक़ा आने पर भी हम पाण्डवों को अपने हाथ से न मारेंगे। पर हों, तुम्हें प्रसन्न करने के लिए हम अपने सामर्थ्य के अनुसार प्रतिदिन हजारों सैनिकों का नाश करने में श्रागा पीछा न करेंगे। एक बात और है । हमारे सेनापति होने से, हम समझते हैं, कर्ण युद्ध में न शामिल होंगे। इससे यह बात उनसे पूछ देखो। तब कर्ण ने कहा :- हे दुर्योधन ! हमने पहले ही प्रतिज्ञा की है कि पितामह के जीवित रहते हम कभी हथियार हाथ से न उठावेंगे। इससे वही सेनापति होकर पहले युद्ध करें। उनके मारे जाने पर हम अर्जुन के साथ युद्ध करेंगे। - इसके अनन्तर भीष्म पितामह विधिपूर्वक सेनापति के पद पर नियत किये गये। तब राजा दुर्योधन की वह इतनी बड़ी सेना महात्मा भीष्म को आगे करके कुरुक्षेत्र की तरफ़ चली । वहाँ जाकर सेनाध्यक्षों ने देखा कि कर्ण आदि के स्थापित किये हुए हज़ारों शिविर दूसरे हस्तिनापुर की तरह शोभा पा रहे हैं। दुर्योधन भी कुरुक्षेत्र में पहुंचे और सबके लिए यथायोग्य जगह का प्रबन्ध करके, और जितने शिविर थे उनमें सब तरह का उचित सामान रखवा कर, युद्ध के लिए तैयार हुए। फिर दोनों पक्षों ने आपस में सलाह करके इस तरह धर्म-युद्ध करने का निश्चय किया कि रथी का रथी के साथ, घोड़े के सवार का घोड़े के सवार के साथ, हाथी के सवार का हाथी के सवार के साथ, और पैदल का पैदल के साथ युद्ध हो । जो किसी और के साथ युद्ध कर रहा हो, जो अपनी शरण आया हो, जो युद्ध से भग रहा हो, अथवा जो डर से घबरा गया हो, उस पर हथियार न चलाये जाने का निश्चय हुआ। साथ ही यह भी निश्चय हुआ कि इस युद्ध में किसी तरह का छल-कपट न किया जाय। कौरवों और पाण्डवों की सेना युद्ध के मैदान में आमने सामने सज कर जब खड़ी हुई तब दुर्योधन ने अपने सलाहकारों से पूछा कि इस समय क्या करना चाहिए। कुछ देर तक विचार होने के बाद शकुनि की राय हुई की इस समय एक दूत पाण्डवों के पास भेजा जाय । यह राय दुर्योधन को पसन्द आई और शकुनि के पुत्र उल्लक का दूत बनाया जाना निश्चित हुआ । उसकी मारफत बे-तरह कटु और अपमानकारी बातों से भरा हुधा संदेशा भेजा गया।