पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२३०

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२०२ सचित्र महाभारत [ दूसरा खण्ड नकुल और सहदेव से भी न रहा गया। उन्होंने भी कहा :- आप हमारे बड़े भाई होकर हमें छोड़े जाते हैं; यह हमारे लिए बड़े दुःख की बात है । बतलाइए तो, मामला क्या है ? आप क्यों ऐसा करते हैं ? परन्तु युधिष्ठिर ने किसी की भी बात का उत्तर न दिया। वे निश्चलभाव से भीष्म के रथ की तरफ़ मुँह किये हुए बराबर चले ही गये । तब कृष्ण जरा मुसकरा कर कहने लगे :- हे पाण्डव ! तुम किसी बात की चिन्ता न करो। घनराने का कोई कारण नहीं । हमने युधिष्ठिर के मन की बात जान ली। गुरुजनों की आज्ञा के बिना वे युद्ध नहीं करना चाहते । इसी से वे उनकी आज्ञा लेने जा रहे हैं। यह अद्भुत तमाशा देख कर कौरवों के दल में तरह तरह की बातें होने लगीं। कोई कोई कहने लगा :- यह युधिष्ठिर क्षत्रियों के कुल में कलंक के समान पैदा हुआ है। मालूम होता है कि यह युद्ध से डर गया है । इसी से भीष्म की शरण लेने दौड़ा आ रहा है । हाय ! हाय ! यह बड़ा ही कायर और कुपूत निकला। अपने भाइयों का मुंह काला करके, देखो तो, यह कैसा अनुचित काम कर रहा है। अब इसके महाबली भाई भीम और अर्जुन लज्जा के मारे मुँह दिखलाने लायक भी न रह जायेंगे। ऐसी ही ऐसी बे-सिर पैर की बातें कौरवों की सेना में सब कहीं होने लगीं। इस तरह शत्रुओं की सेना पाण्डवों को धिक्कार और दुर्योधन आदि कौरवों की प्रशंसा करके बड़े आनन्द से झंडे हिलाने लगी। जब युधिष्ठिर भीष्म के पास पहुंचे, तब, सब लोग, यह सुनने के लिए कि देखें ये क्या कहते हैं और भीष्म क्या उत्तर देते हैं, चुपचाप मूर्ति के समान खड़े रहे। उधर युधिष्ठिर, भाइयों को साथ लिये हुए, अस्त्र-शस्त्रों से सजी हुई शत्र की सेना के बीच घुसते हुए वहाँ जा पहुँचे जहाँ पितामह भीष्म युद्ध के लिए तैयार खड़े थे। उनके पास जाकर युधिष्ठिर ने उनके दोनों पैर छुए और कहा:- हे वीर-शिरोमणि ! हम आपसे आज्ञा माँगने आये हैं। युद्ध के लिए आप हमें अनुमति और आशीर्वाद दीजिए। युधिष्ठिर के इस शिष्टाचार को देख कर भीष्म बहुत ही प्रसन्न हुए। वे बोले :- ___ हे राजन् ! तुम यदि हमसे बिना मिले ही युद्ध प्रारम्भ कर देते तो हमें जरूर दुःख होता। तुम्हारे इस शिष्टाचार से हम बड़े प्रसन्न हुए। हम तुम्हें आशीर्वाद देते हैं :-युद्ध में तुम्हारी ही जीत हो। तुम तो खुद ही जानते हो कि हम कर्तव्य के वश होकर तुम्हारे शत्रों की तरफदारी करने के लिए लाचार हुए हैं। इससे हमें अपनी तरफ़ कर लेने की बात को छोड़ कर और जो वर हमसे चाहो मांग सकते हो। युधिष्ठिर ने कहा :-हे पितामह ! आप कौरवों का पद लेकर युद्ध कीजिए; परन्तु हमें कोई ऐसा उपदेश दीजिए जिसमें हमारा हित हो। हम आपसे यही वर मांगते हैं। भीष्म ने कहा :-बेटा । यह किसी में शक्ति नहीं जो हमें अपनी इच्छा न रहते मार सके। हम जब मरेंगे अपनी ही इच्छा से मरेंगे। इससे इस समय तुम्हें जिताने के लिए हम कौन सा उपदेश दें, कुछ समझ में नहीं आता। खैर तुम किसी और दिन, अच्छा मौका देख कर, हमारे पास आना । हम तुम्हें अवश्य कुछ उपदेश करेंगे। तब युधिष्ठिर ने पितामह को प्रणाम किया और उनकी बात को ह्रदय में धारण करके वे प्राचार्य द्रोण के पास गये । द्रोण से भी उन्होंने युद्ध के लिए अनुमति मांगी।