पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दूसरा खण्ड] युद्ध का प्रारम्भ २०५ सा मालूम होने लगा। सेना की चाल से इतनी धूल उड़ी कि सूर्यबिम्ब छिप गया। धीरे धीरे इतना अन्ध- कार बढ़ा कि हाथ मारा न सूझने लगा। अर्जुन का भीष्म के साथ, भीमसेन का दुर्योधन के साथ, युधिष्ठिर का मद्रराज के साथ, विराट का भगदत्त के साथ, सात्वकि का कृतवर्मा के साथ, इसी तरह एक पक्ष के प्रत्येक वीर का दूसरे पक्ष के उपयुक्त वीर के साथ कुछ देर तक बड़ा ही घोर युद्ध हश्रा । परन्तु कोई किसी को न हरा सका । दोनों पक्षों की व्यूह-रचना-दोनों सेनाओं की किलेबन्दी-जैसी की तैसी रही; वह जरा भी न टूट सकी । सेनाओं का किलकिला-शब्द, शङ्ख और भेरी की ध्वनि, वीरों का सिंहनाद, धनुष की प्रत्यञ्चाओं की टङ्कार, हथियारों की झनकार, दौड़ते हुए हाथियों का घण्टा-नाद और रथों की वन-तुल्य घरघराहट से सब दिशायें भर गई। दो पहर तक इसी तरह युद्ध होता रहा। बड़ा भयङ्कर युद्ध हुआ। दोनों पक्षों की बहुत सी सेना कट गई । पर दोनों में से कोई भी आगे न बढ़ सका। जो जहाँ था वहीं रहा । किसी का भी व्यूह न टूटा। भीष्म ने इस तरह के युद्ध को अच्छा न समझा । उन्होंने कहा, जिस युद्ध में जीत किसी की न हो और दोनों तरफ की सेना व्यर्थ कट जाय उस युद्ध को रण-चतुर सेनापति बुरा समझते हैं। इससे उन्होंने दो पहर के बाद एक कौशल रचा । उन्होंने पाण्डवों के व्यूह के एक ऐसे स्थान का पता लगाया जो जरा कमजोर था और जिसकी रक्षा का भी ठीक ठीक प्रबन्ध न था। फिर कृप, शल्य और कृतवर्मा आदि वीरों से रक्षित होकर उन्होंने उसी स्थान पर धावा किया और असंख्य सेना मार कर व्यूह तोड़ देने का यत्न करने लगे। अकेले बालक अभिमन्यु को छोड़ कर व्यूह के उस भाग की रक्षा करनेवाला और कोई वहाँ न था । अर्जुन ही के समान तेजस्वी उनके पुत्र अभिमन्यु को मालूम हो गया कि अब हमारी सेना पर विपद आ गई और अब व्यूह बिना टूटे नहीं बचता। परन्तु वह डरा नहीं । निडर होकर सिंह की तरह वह उस स्थान पर आ पहुँचा जहाँ बड़े बड़े कौरव वीर व्यूह तोड़ने की कोशिश में थे। आते ही उसने उन वीरों के काम में विघ्न डाला। पहले तो उसने कृतवर्मा और शल्य को अपने शगें से छेद दिया; फिर भीष्म के ऊपर बाण बरसाना प्रारम्भ किया। कृपाचार्य ने अभिमन्यु के ऊपर बहुत से अस्त्र- शस्त्र चलाये, परन्तु अभिमन्यु ने उन सबको रास्ते ही से लौटा दिया और अपने अत्यन्त पैने बाणों से कृपाचार्य के सुवर्ण-खचित धनुष को काट गिराया। यह देख कर भीष्म को बड़ा क्रोध हो पाया। उन्होंने अभिमन्यु के रथ की ध्वजा काट डाली, उनके सारथि को घायल किया और खुद अभिमन्यु को तीन बाणों से छेद दिया । परन्तु अर्जुन के बेटे महावीर अभिमन्यु ने 'आह' तक न की; जरा भी वे नहीं घबराये, जरा भी वे नहीं डरे । यद्यपि दुर्योधन के पक्षवाले वीरों ने उन्हें इस समय चारों तरफ से घेर लिया था, तथापि अकेले ही वे उन सबका सामना करने लगे। बाणों की विकट वर्षा से उन्होंने कौरवों की सेना को कँपा दिया। जहाँ देखो वहाँ अभिमन्य के छोड़े हए बाण ही बाण देख पड़ने लगे। कौरव-सेनापति भीष्म को भी अभिमन्यु ने नहीं छोड़ा । अपने अत्यन्त पैने शरों से उन्होंने भीष्म को बे-तरह पीड़ा पहुँचाई । उस समय यह मालूम होता था मानो पिता की तरह पुत्र अभिमन्यु भी गाण्डीव धन्वा से शरों का समूह छोड़ धनुर्विद्या में अभिमन्यु का हाथ ऐसा बढ़ा चढ़ा था कि मौका पाते ही उन्होंने भीष्म के रथ की ध्वजा काट गिराई । कौरवों के सेनापति भीष्म के रथ की ध्वजा बहुत ऊँची थी। वह सोने की बनी हुई थी; बीच बीच में मणियाँ जड़ी थीं। उस पर ताल का चिह्न था। इसी से उसका नाम ताल बन था। भीष्म की ध्वजा के कट कर जमीन पर गिरते ही कौरवों की सेना में हाहाकार और पाण्डवों की सेना में प्रसन्नता-सूचक शब्दों का कोलाहल सुनाई पड़ने लगा। इसी समय पाण्डवों के पक्ष के भीमसेन