पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२४१

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दूसरा खण्ड ] युद्ध का प्रारम्भ २१३ क्रम क्रम से भीम और अर्जुन के इस महाभयंकर युद्ध से युद्ध के मैदान ने बड़ी ही डगवनी मूत्ति धारण की । कहीं पर रुधिर लगे हुए सोने के कवच पड़े हैं; कहीं पर चित्र-विचित्र पुछल्ले लगे हुए बाण पड़े हैं; कहीं पर टूटे हुए बहुमूल्य घण्टीदार रथ पड़े हैं; कहीं पर धूल में लिपटे हुए सफेद पताके पड़े हैं । हाथियों और घोड़ों की लोथों और नर-वीरों के रुण्ड-मुण्डों की तो कुछ गिनती ही नहीं । इसके बाद कुछ ही देर बाद सूर्यास्त हो गया। धीरे धीरे घोर अन्धकार छा गया। मारी जाने से बची हुई कौरवों की सेना निराश और उत्साहहीन होकर चुपचाप डेरों की तरफ़ चली। जीत से आन- न्दित होकर पाण्डव लोग भी विश्राम करने गये। शिविर में जाकर दुर्योधन विलाप करते करते कहने लगे :- हे वीरो ! युद्ध के मैदान में भीष्म, द्रोण, कृप और शल्य के रहते भी क्या कारण है कि पाण्डव अब तक परास्त नहीं किये जा सके ? पाण्डव लोग जीते रह कर हमारी सेना का नाश कर रहे हैं और हम निर्बल, शस्त्रशून्य और परास्त हो रहे हैं। तो क्या देवता भी पाण्डवों को सचमुच ही नहीं जीत सकते ? यह बात महावीर कर्ण के कलेजे में बाण सी लगी। उन्होंने उत्तर दिया :- हे भरतवंशावतंस ! आप शोक न कीजिए । हम आपका मनोरथ ज़रूर सफल करेंगे । भीष्म एक तो पाण्डवों पर दया करते हैं- जैसा चाहिए वैसा उनके साथ जी खोल कर लड़ते नहीं-दूसरे युद्ध के विषय में उन्हें अभिमान तो बड़ा है, पर योग्यता उनमें उतनी नहीं है । इससे उन्हें चाहिए कि हथियार हाथ से डाल कर वे प्रधान सेनापति का पद हमें दे दें। यदि ऐसा हो जाय तो आप हमारे हाथ से पाण्डवों को शीघ्र ही मरा हुआ दखग। यह सुनते ही दुर्योधन ने दुःसाशन को आज्ञा दी :- भाई ! तुम जाकर हमारे साथ रहनेवालों से कह दो कि वे शीघ्र ही तैयार हो जाय; हम भीष्म से अभी मिलने जायँगे। इसके अनन्तर मुकुट, बाजूबन्द, पहुँची, माला आदि आभूषण पहन कर, सोने के जलते हुए लालटेन हाथ में लिये हथियारबन्द नौकरों के साथ, राजा दुर्योधन महात्मा भीष्म के डेरे की ओर चले । वहाँ पहुँच कर वे घोड़े से उतर पड़े और भीष्म के डेरे के भीतर जाकर हाथ जोड़कर भीष्म के सामने खड़े हो गये। फिर वे आँखों में आँसू भर कर इस तरह भीष्म से कहने लगे :-- हे शत्रुओं के नाश करनेवाले ! आपके बल पर पाण्डवों की बात तो दूर रही, इन्द्र आदि देव- ताओं तक को भी हम लोग जीतने की आशा रखते थे। परन्तु हम देखते हैं कि उल्टा पाण्डव ही प्रति- दिन हमारी सेना का नाश कर रहे हैं । हे महानुभाव ! पाण्डवों पर स्नेह के कारण, अथवा हमारे ऊपर अप्रसन्नता या द्वेष के कारण, अथवा हमारे दुर्भाग्य के कारण, यदि आप पाण्डवों को परास्त करने से मुंह मोड़ रहे हैं तो हमारे परम हितचिन्तक महाबली कर्ण को श्राज्ञा दीजिए, वे अवश्य ही बन्धु बान्धवों- सहित पाण्डवों का संहार करेंगे। ___ इतनी बात कह कर कुरु-राज दुर्योधन चुप हो रहे । दुर्योधन का यह वाक्यरूपी बाण भीष्म के हृदय में बेढब लगा। मारे क्रोध के कुछ देर तक वे आँखें बन्द किये चुपचाप बैठे रहे । अनन्तर आँखें खोल कर शान्ततापूर्वक कहने लगे :-- हे राजन् ! अपने प्राणों की भी परवा न करके, जहाँ तक हो सकता है, हम सदा ही तुम्हारा मनोरथ पूरा करने की कोशिश करते हैं। उपाय भर हम इसमें जरा भी कसर नहीं करते । फिर क्या समझ कर तुम हमारा अपमान करने से बाज नहीं आते ? क्यों तुम बार बार हम पर झूठा इलजाम लगाते हो ?