पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२५१

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दूसरा खण्ड] युद्ध का प्रारम्भ २२१ चीजों से पितामह को सन्तोष न हुआ देख, अर्जुन ने फिर उनके मन की बात जान कर, उनके दक्षिण तरफ की जमीन को वारुणास्त्र-द्वारा पाताल तक छेद दिया । उससे अत्यन्त शीतल, विमल और स्वादिष्ट दिव्य जल की धारा निकली । उसने भीष्म की इच्छा पूर्ण कर दी । उसे देख उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने अर्जुन की बहुत प्रशंसा की। इसके अनन्तर, शरीर के भीतर फंसे हुए बारणों और दूसरे प्रकार के अस्त्रों को निकालने और , मरहमपट्टी करनेवाले बहुत से कुशल वैद्य बुलाये गये । वे लोग नाना प्रकार के यन्त्र और दवायें आदि लेकर भीष्म के पास उपस्थित हुए। उन शल्योद्वार-कुशल वैद्यों को देख कर भीष्म बोले :- ____ हे दुर्योधन ! तुम इन लोगों का अच्छी तरह आदर-सत्कार करके बिदा कर दो। क्षत्रियों को जिस गति की वाञ्छा होती है उसी गति को हम प्राप्त हुए हैं। हमारे लिए दवा-पानी की जरूरत नहीं। हमारी मृत्यु हो जाने पर इसी शर-शय्या के साथ हमारे शरीर को दग्ध कर देना । जिस समय घायल होकर हम युद्र में गिरे हैं उस समय सूर्य दक्षिण दिशा में थे। हमने वर पाया है कि बिना इच्छा के हमारी मृत्यु न होगी। अतएव जब तक सूर्य दक्षिण दिशा को छोड़ न देंगे तब तक हम शरीर न छोड़ेंगे। शस्त्र-वैद्यों के चले जाने पर भीष्म ने दुर्योधन से कहा :- बेटा ! तुम्हें चाहिए कि तुम क्रोध को छोड़ दो। जी से हमारी यही इच्छा है कि हमारे मरने ही से युद्ध समाप्त हो जाय । हम चाहते हैं कि हमारी मृत्यु के अनन्तर प्रजा को शान्ति-सुख मिले, राजा लोग प्रसन्न होकर परस्पर एक दूसरे को गले से लगावें, पिता पुत्र से मिलें, भाई भाई से मिलें, और कुटुम्बीय कुटुम्बियों से मिलें। इससे, हे राजन् ! तुम ईया-द्वेष छोड़ो । मन की मलीनता दूर कर दो। प्रसन्न हो । पाण्डवों को आधा राज्य देकर उनके साथ सन्धि कर लो। शस्त्रों के गहरे घाव लगने के कारण भीष्म पितामह विकल हो रहे थे। इससे और अधिक वे न बोल सके। उन्होंने आँखें बन्द कर ली और योगियों की तरह प्राणों को ब्रह्मरन्ध्र में खींच कर चुप हो रहे । पाण्डवों, कौरवों और अन्य राजा लोगों ने तीन दफे उनकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया। फिर उनके चारों तरफ़ खाई खोद कर और संतरी मुकर्रर करके सब लोग उदास-मन अपने अपने डेरे को लौट आये। जिस मनुष्य की मृत्यु निकट होती है उसे दवा नहीं अच्छी लगती। ठीक यही हाल दुर्योधन का समझिए । उन्हें भीष्म का उपदेश बिलकुल ही नहीं रुचा। इधर महावीर कर्ण ने जब भीष्म की शर-शय्या का हाल सुना तब वे पहला वैर भूल गये और तुरन्त उनके पास आकर उपस्थित हुए। आँखें बन्द किये हुए, लोहू से सराबोर, आखिरी शय्या पर लेटे कुरु पितामह को देख कर दयावान् कर्ण का कण्ठ भर आया। वे उनके पैरों पर गिर कर कहने लगे :- हे महात्मा ! आपकी आँखों के सामने होने पर आप सदैव जिस पर अप्रसन्न होते थे वही राधेय कर्ण आपको प्रणाम करता है। यह वचन सुन कर भीष्म ने बड़े कष्ट से आँखें खोली । उन्होंने देखा कि कर्ण के सिवा वहाँ और कोई नहीं है । तब उन्होंने संतरियों को दूर हटा कर, कर्ण को, पिता की तरह, दाहने हाथ से छाती से लगाया और बड़े प्रेम से इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया :- हे कर्ण ! यद्यपि तुमने सदा ही हमारे साथ स्पर्धा की है-सदा ही हमसे ईर्ष्या-द्वेष रक्खा है-- तथापि इस समय यदि तुम हमारे पास न आते तो हम निश्चय ही बहुत दुखी होते । हमने यह बात