पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२५८

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२२८ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड को छेद दिया। भगदत्त के हाथ से धनुर्बाण छूट पड़ा और प्राण-पक्षी शरीर से उड़ गया। तब अर्जुन ने रास्ता साफ़ देख फिर युधिष्ठिर के पास लौट चलने के लिए जोर से रथ चलाया। ____उधर अर्जुन के दूर चले जाने पर द्रोणाचार्य ने एक ऐसा व्यूह बनाया जो किसी तरह तोड़ा न जा सके। फिर अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार युधिष्ठिर को पकड़ने के इरादे से वे पाण्डवों की सेना के सामने हुए। द्रोण के व्यूह के जवाब में युधिष्ठिर ने भी एक व्यूह बनाया। उस समय द्रोण और युधिष्ठिर के शरीर-रक्षकों में घमासान का युद्ध होने लगा। युधिष्ठिर की तरफ़ की जो सेना द्रोणाचार्य का आगे बढ़ना रोकती थी वह इस तरह तितर बितर होने लगी जैसे वायु के वेग से मेघों का जमाव छिन्न भिन्न हो जाता है। इसी समय महावीर द्रोण युधिष्ठिर के ठीक सामने आ पहुँचे और सैकड़ों बाण बरसा कर उन्होंने युधिष्ठिर को तोप दिया। हाथियों के मुण्ड के सबसे बड़े हाथी पर सिंह को टूटते देख जैसे सारे हाथी बे-तरह चिल्लाने लगते हैं, युधिष्ठिर पर द्रोण का आक्रमण देख पाण्डव-सेना ने उसी तरह कोलाहल प्रारम्भ कर दिया। अर्जुन ने सत्यजित को युधिष्ठिर की रक्षा का काम पहले ही से दे रक्खा था। जब उन्होंने देखा कि द्रोणाचार्य युधिष्ठिर को पीड़ित कर रहे हैं तब बड़े वेग से दौड़ कर द्रोण के सारथि और घोड़े को उन्होंने अपने तीक्ष्ण शरों से छेद दिया। फिर मण्डलाकार घूम कर उन्होंने प्राचार्य की ध्वजा को काट गिराया। इससे द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध हुआ। उन्होंने दस बाण सत्यजित के शरीर के भीतर प्रविष्ट कर दिये । परन्तु इतने वाण लगने पर भी सत्यजित जरा भी न घबराये। उन्होंने फिर भी द्रोण पर आघात किया। पाण्डव लोगों ने सत्यजित के इस पराक्रम को देख कर सिंहनाद करके और जय-सूचक वस्त्र हिला कर खुशी मनाई । द्रोणाचाय्य बार बार सत्यजित का धनुष काटने लगे; परन्तु परम पराक्रमी सत्यजित क्रम क्रम से दूसरे धनुष ले लेकर बिना जरा भी भय या चञ्चलता प्रकट किये, पहले से भी अधिक घोर संग्राम करने लगे। अन्त में मौका पाते ही आचार्य ने अर्द्धचन्द्र बाण से सत्यजित का सिर धड़ से अलग कर दिया। तब अर्जुन के उपदेश के अनुसार द्रोणाचार्य के सामने रहना उचित न समझ युधिष्ठिर ने युद्ध के मैदान से प्रस्थान किया। युधिष्ठिर को पकड़ न सकने के कारण द्रोणाचार्य के क्रोध की सीमा न रही। रण-भूमि में घूम घूम कर अनन्त पाञ्चाल लोगों को उन्होंने मार गिराया । इसी समय भगदत्त को मार कर, और रास्ते में कौरवों की अनगिनत सेना नष्ट करके, अर्जुन वहाँ पहुँच गये। उन्हें लौट आया देख पाण्डवों की सेना का उत्साह बढ़ गया। उसने बहुत ही घोर युद्ध प्रारम्भ कर दिया। इससे कौरव- सेना एक क्षण भर भी उसके सामने न ठहर सकी। दोणाचार्य पर चारों तरफ से धावा होने लगा। इससे उनका मनोरथ सफल न हो सका। उन्होंने वहाँ से हट जाना ही उचित समझा। तब दुर्योधन ने अपने पक्षवालों की बड़ी हा दुदेशा और हँसी होते देख आचार्य के कहने से उस दिन का युद्ध समाप्त होने की आज्ञा दी। - दूसरे दिन, सवेरे, युद्ध का प्रारम्भ होने के पहले ही, सब लोगों के सामने दुर्योधन ने द्रोण से उदास होकर कहा :- हे प्राचार्य ! प्रसन्न मन से हमें वरदान देकर अब आप अपनी प्रतिज्ञा को तोड़ रहे हैं। भक्त-जनों को इस तरह निराश करना क्या आप ऐसे महात्माओं को उचित है ? तब द्रोण बहुत लज्जित होकर कहने लगे :- हम तुम्हारे मन के अनुकूल काम करने का निरन्तर यत्र करते हैं; किन्तु, कृष्ण की चालाकी और अर्जुन के पराक्रम के कारण हमारी एक भी नहीं चलती। जो कुछ हम करते हैं सभी व्यर्थ जाता है। खैर, आज फिर अर्जुन को युद्ध के मैदान से दूर हटा ले जाव । हम एक ऐसी व्यूह-रचना