पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२६१

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युद्ध जारी दूसरा खण्ड] २२९ करेंगे हम एक ऐसी मोरचाबन्दी करेंगे कि उसके भीतर जो पाण्डव-वीर पड़ जायगा वह जीता न बचेगा। " आचार्य के मुँह से यह बात सुनकर मारे जाने से बचे हुए त्रिगर्त लोगों ने फिर अर्जुन को युद्ध के लिए ललकारा। फिर वे लड़ते लड़ते अर्जुन को दूर ले गये और वहाँ उन्हें घोर युद्ध में लगा रक्खा। इधर द्रोण ने अपने कथन के अनुसार एक बड़ा ही विकट व्यूह रचा और बे-धड़क पाण्डवों की तरफ बढ़े। प्राचार्य को इस तरह बड़े ही भीम विक्रम और साहस से आते देख युधिष्ठिर को बड़ी चिन्ता हुई । वे उनसे बचने का उपाय सोचने लगे। द्रोण के बनाये हुए उस चक्रव्यूह (चकाबू ) नामक मोरचे के भीतर घुस कर उसे तोड़ने के योग्य वीर वे हूँढ़ने लगे। पिता ही के समान तेजस्वी अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु को छोड़कर और किसी को उन्होंने इस योग्य न समझा। इसलिए यह काम अभिमन्यु को सौंप कर युधिष्ठिर बोले :- बेटा ! इस व्यूह को कैसे तोड़ना चाहिए, यह कुछ भी हमारी समझ में नहीं आता। ऐसा न हो कि लौटने पर अर्जुन हम सबकी निन्दा करें। इससे तुम्हीं को इस समय जो उचित जान पड़े करो। अभिमन्यु ने कहा :-हे आर्य्य ! हम इस व्यूह के भीतर घुस जाने की युक्ति तो जरूर जानते हैं; परन्तु इससे निकल आने की युक्ति नहीं जानते । इससे जलती हुई आग में पतंगे की तरह इस विपदा- जनक व्यूह के भीतर घुसना क्या आप उचित समझते हैं ? तब युधिष्ठिर ने कहा :-तुम यदि एक बार व्यूह को तोड़ कर भीतर घुस जावगे तो तुम्हारे पीछे हम सब लोग भी घुस कर तुम्हारी रक्षा और कौरवों का नाश करेंगे। इससे शत्रुओं के बीच में घुसने को हमारे लिए तुम जगह भर कर दो। चचा युधिष्ठिर की इस प्रकार आज्ञा पाकर महावीर अभिमन्यु ने सारथि से कहा :- हे सुमित्र ! तुम द्रोणाचार्य की सेना के सामने शीघ्र ही हमारा रथ ले चलो। अभिमन्यु के बार बार इस तरह आज्ञा देने पर सारथि बोला :- हे राजकुमार ! आप बहुत बड़ा काम अपने ऊपर ले रहे हैं। ऐसा बुरा साहस करना आपको उचित है या नहीं, इसका अच्छी तरह विचार करके तब युद्ध के लिए प्रस्थान करना उचित होगा। तब अर्जुन-सुत अभिमन्यु ने हँस कर कहा :- क्षत्रियों से घिरे हुए द्रोण की बात तो दूर रही, ऐरावत हाथी पर सवार देवराज इन्द्र से भी युद्ध में हम पीछे नहीं हट सकते । इससे ज़रा भी विलम्ब न करके तुम हमारे रथ को द्रोणाचार्य की तरफ चलायो। सारथि ने देखा कि अभिमन्यु ने मेरी बात का कुछ भी आदर न किया। यह बात उसे बुरी लगी। पर वह करता क्या ? बेचारा लाचार था। उसे रथ चलाना ही पड़ा। सोने के साज से शोभित पीले घोड़ों की रास उसने हिलाई और वे तुरन्त ही द्रोणाचार्य की सेना के सामने चले । तब पाण्डव- वीर भी अभिमन्यु के पीछे हो लिये। गंगा का एक सोता जैसे समुद्र में प्रवेश करे, वैसे ही द्रोण की सेना से अभिमन्यु जा मिले। घोर युद्ध ठन गया। द्रोणाचार्य के देखते देखते उनके व्यूह को तोड़ कर अभिमन्यु उसके भीतर घुस गये। किन्तु, जो पाण्डव-वीर अभिमन्यु के पीछे व्यूह के भीतर घुसने की चेष्टा करते थे उन्हें जयद्रथ ने व्यूह के द्वार ही पर रोक दिया। मिल कर सबके बहुत प्रयत्न करने पर भी पाण्डवों की एक न चली। दैव कौरवों की तरफ था। महाबली सिन्धुराज को हटा कर एक भी पाण्डव-वीर व्यूह के भीतर न फंस सका । कौरवों ने टूटे हुए व्यूह को फिर सुधार लिया और अभिमन्यु को भीतर पाकर चारों तरफ से उन्हें घेर लिया।