पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२७४

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२४२ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड हमारे मन में बार बार यही शङ्का होती है कि कहीं अर्जुन को कुछ हो न जाय। हमें अपनी रक्षा करनी चाहिए या अर्जुन की सहायता-इन दो बातों का विचार करने में अर्जुन के पास तुम्हें भेजना ही हम मङ्गलजनक समझते हैं। हमारे कहने से यदि तुम अर्जुन के पास जावगे तो तुम पर कोई दोष न आवेगा । महावीर धृष्टद्युम्न और हमारे भाई हमारी रक्षा करेंगे। तब धर्मराज की आज्ञा से सात्यकि ने उसी राह से आगे बढ़ना प्रारम्भ किया जिस राह से अर्जन गये थे। युधिष्ठिर भी द्रोण के आक्रमण से उनकी रक्षा करने के लिए बहुत से वीर लेकर उनके पीछे पीछे चले। इस पर कौरवों की सेना के बड़े बड़े योद्धाओं ने उनका सामना किया; परन्तु उन्हें इन लोगों ने मार भगाया। तब द्रोणाचार्य ने पैने बाण बरसा कर सात्यकि को रोका। महावीर सात्यकि इससे ज़रा भी न घबगये। उन्होंने द्रोण की ध्वजा काट दी, उनके रथ के घोड़ों को मार गिराया, तथा उनके सारथि को भी बाणों से छेद कर भूमि पर सुला दिया। यह देख द्रोणाचार्य को बड़ा क्रोध हुआ। वे बोले :-- हे सात्यकि ! यदि अपने गुरु अर्जुन की तरह तुम भाग न गये तो आज तुम जीते न बचोगे। द्रोणाचार्य के साथ अन्त तक युद्ध न करके जिस युक्ति से जिस हिकमत से-अर्जन आगे बढ़ गये थे वह सात्यकि जान गये थे। इससे द्रोण के वचन सुन कर उन्होंने कहा :- हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ ! भगवान् आपका भला करें। शिष्य को गुरु ही की चाल चलनी चाहिए। शिष्य का कर्तव्य है कि जिस ढंग से उसका गुरु कोई काम करे उसी ढंग से वह भी करे। अतएव, लीजिए, हम आपको छोड़ कर अपने गुरु के पास चले। ___ यह कह कर सात्यकि ने द्रोण को छोड़कर व्यूह में प्रवेश किया। शत्रुओं के अगाध सैन्य- सागर में उन्हें इस तरह अकेले घुसते देख धर्मराज सोचने लगे :- सात्यकि को हमने अर्जुन के पास तो भेजा; किन्तु, उनकी रक्षा का कोई उचित उपाय नहीं । किया। पहले तो हमें अकेले अर्जुन ही के लिए चिन्ता थी, पर अब सात्यकि और अर्जुन दोनों के लिए हमारा जी ऊब रहा है । संसार में कोई बात ऐसी नहीं जो भीम के लिए असाध्य हो। वे क्या नहीं कर सकते १ उन्हीं के बल और पौरुष के भरोसे हम लोगों ने वनवास के बारह वर्ष बिताये हैं। अतएव, वीर-वर भीमसेन को सात्यकि और अर्जुन के पास भेजने से उन्हें जरूर सहायता मिलेगी-उनका जरूर मङ्गल होगा। मन ही मन इस तरह का निश्चय करके युधिष्ठिर ने भीम के पास रथ ले जाने के लिए आज्ञा दी। उनके पास पहुँच कर उन्होंने कहा :- हे भीम ! जिस वीर ने एक ही रथ की सवारी से देवताओं, दानवों और गन्धवों को परास्त किया है, उन्हीं तुम्हारे भाई अर्जुन का ध्वजदण्ड अब और नहीं देख पड़ता। यह कहते कहते युधिष्ठिर माह के वशीभूत हो गये । दुःख से उनका कण्ठ भर आया । भाई की यह दशा देख भीम बेतरह घबरा उठे । वे बोले :- हे धर्मराज ! हमने आपको कभी इस तरह कातर होते नहीं देखा। पहले जब कभी हम किसी कारण से घबरा जाते थे तब तुम्ही हमें उलटा धीरज देते थे। तुम्हारा इस तरह दुखी होना हम नहीं सहन कर सकते । इस समय शोक दूर करके आज्ञा दीजिए कि हमें कौन काम करना होगा। यह सुन कर युधिष्ठिर का जी कुछ ठिकाने हुआ। वे कहने लगे :- हे वृकोदर ! जयद्रथ को मारने के लिए आज सूर्योदय होते ही अर्जुन ने कौरवों की सेना में प्रवेश किया था। इस समय सायङ्काल होने को आया; पर अब तक वे नहीं लौटे। यही हमारे शोक का