पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२७७

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दूसरा खण्ड ] युद्ध जारी २४५ की तरह भूरिश्रवा सात्यकि पर टूटे और देखते देखते उनके सारथि को मार कर रथ को चूर चूर कर डाला। सात्यकि बिना रथ के होकर ज़मीन पर आ रहे । तब कृष्ण ने फिर कहा :- हे अर्जुन ! देखो, यादव-श्रेष्ठ सात्यकि इस समय कैसी विपद में हैं । तुम्हारे ही कारण तुम्हारे प्यारे शिष्य की यह दशा हुई है । इसलिए उनकी शीघ्र ही रक्षा करो। युधिष्ठिर को छोड़ कर चले आने के कारण एक तो अर्जुन सात्यकि पर नाराज़ थे, दूसरे भूरिश्रवा के उत्तम युद्धकौशल को देख कर मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे। इससे न तो कृष्ण की बात का उन्होंने कोई उत्तर दिया और न सात्यकि को बचाने का कोई प्रयत्न ही किया। इसके अनन्तर, रथहीन सात्यकि के पास पहुँच कर कृष्ण और अर्जुन के सामने ही भूरिश्रवा ने उन्हें लात मार कर जमीन पर गिरा दिया और उनके बाल पकड़ कर मियान से तलवार निकाली। अब क्या हो! जिस हाथ से भूरिश्रवा ने सात्यकि के बाल पकड़ रक्खे थे उस हाथ-समेत सात्यकि ने अपने मस्तक को तलवार की वार से बचाने के लिए इधर उधर घुमाना आरम्भ किया। तब रथ को और पास ले जाकर कृष्ण ने बड़े ही कातर-कण्ठ से आग्रह किया :- हे पार्थ ! सात्यकि तुम्हारे ही समान वीर हैं । परन्तु इस समय भूरिश्रवा के हाथ में पड़ कर, देखो, प्राण खोना चाहते हैं। हे महाबाहु ! उनकी ज़रूर रक्षा करो। तब अर्जुन ने देखा कि शिष्य की विपद की और अधिक उपेक्षा करने से काम न चलेगा- अब सात्यकि की प्राण-रक्षा का उपाय करना ही होगा। अर्जुन ने कहा :-- हे वासुदेव ! हम एकाग्र-चित्त होकर जयद्रथ के वध की चिन्ता करते थे; इसी से भूरिश्रवा को हमने नहीं देखा। यद्यपि इन दो वीरों के पारस्परिक युद्ध में दखल देना उचित नहीं; तथापि इस समय हम भूरिश्रवा पर ज़रूर प्रहार करेंगे। यह कह कर अर्जुन ने एक छुरे की धार के समान तेज़ बाण गाण्डीव पर रक्खा । उसका छूटना था कि तलवार और बाजूबन्द-समेत भूरिश्रवा के दोनों हाथ कट कर जमीन पर गिर पड़े। बिना हाथों के हो जाने से भूरिश्रवा युद्ध के काम के न रहे । तब सात्यकि को छोड़ कर भूरिश्रवा इस प्रकार अर्जुन को धिक्कारने लगे :- हे कुन्ती-नन्दन! जिस समय और सब कहीं से अपने मन को खींच कर हम दूसरे काम में लगे थे उस समय हमारे दोनों हाथ काट कर तुमने बड़ा ही निन्द्य काम किया है । ऐसी अवस्था में शस्त्र चलाने का उपदेश तुम्हें किसने दिया है ? इन्द्र ने दिया है ? कि महादेव ने दिया है ? कि द्रोणाचार्य ने दिया है ? तुम क्षत्रियों में श्रेष्ठ माने जाते हो और दूसरे वीरों की अपेक्षा तुम्हें क्षत्रिय-धर्म का ज्ञान भी अधिक है। अतएव इसमें सन्देह नहीं कि भ्रष्ट यादवों के कुल में उत्पन्न कृष्ण के कहने से ही तुमने यह काम किया है। अपने बन्धु कृष्ण की निन्दा अर्जुन से न सही गई । वे बोले :- हे प्रभु ! जो पुरुष अपने आसरे हो-जो पुरुष अपनी शरण हो–उसकी रक्षा करना क्षत्रियों का प्रधान कर्त्तव्य है । तुम्हीं कहो, इतनी बड़ी चतुरङ्गिनी सेना से परिपूर्ण इस भीषण समर-सागर में एक ही मनुष्य के साथ कैसे युद्ध हो सकता है ? अपनी रक्षा की परवा न करके दूसरों को मार डालने पर तुम उतारू थे। क्या तुम्हें यही उचित था ? अतएव भ्रमवश यदि ऐसा काम हमसे हो गया तो आश्चर्य ही क्या है ? भूरिश्रवा ने अर्जुन का यह युक्तिपूर्ण उत्तर मान लिया और चुपचाप बैठ जाने का निश्चय किया। सूर्य की तरफ दृष्टि करके वे शर-शय्या पर बैठ गये और महोपनिषद् का ध्यान करते करते योगारूढ़ होकर मौनव्रत धारण कर लिया। पराजित होने के कारण सात्यकि क्रोध से पागल हो