पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२८

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सचित्र महाभारत पहला खण्ड ] महर्षि परशुराम को क्रुद्ध देख कर भीष्म ने नम्रतापूर्वक उनसे निवेदन किया : हे ब्रह्मर्षि! हमने जन्म भर ब्रह्मचर्य-व्रत रखने का प्रण किया है; हमने प्रतिज्ञा की है कि हम कभी विवाह न करेंगे। इससे प्रतिज्ञा तोड़ कर कैसे हम क्षत्रिय-धर्म को नष्ट कर सकते हैं ? किन्तु जामदग्न्य ने भीष्म की एक भी बात न सुनी। उनकी एक भी युक्ति को उन्होंने न माना। वे क्रोध से जल उठे। उनकी आँखें लाल हो गई। वे बार बार कहने लगे : _ तुम जो मेरी बात न मानोगे तो मैं तुम्हें युद्ध में जीता न छोड़ेगा। तुम्हारे साथ युद्ध करके मैं तुम्हें प्राणदण्ड दिये बिना न रहूँगा। भीष्म ने बहुत प्रार्थना की; बार बार उनसे विनती की; हर तरह उन्हें शान्त करने की चेष्टा की। उनके चरणों पर उन्होंने अपना सिर तक रख दिया। बहुत गिड़गिड़ाकर वे बोले : __ भगवन् ! आप तो हमारे गुरु हैं। गुरु-शिष्य का कैसा युद्ध ! फिर क्यों आप मुझसे युद्ध करना चाहते हैं ? __ किन्तु परशुराम ने उनकी एक बात पर भी ध्यान न दिया। उन्हें किसी तरह सन्तोष न हुआ। वे कहने लगे : यदि तुम मुझे अपना गुरु ही मानते हो तो फिर क्यों मेरी बात टालते हो ? क्या शिष्य को भी कभी गुरु के वचन का उल्लङ्घन करना उचित है ? परन्तु गुरु की आज्ञा से भी अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करने के लिए भीष्म राजी न हुए। उन्होंने कहा : हे गुरु ! यदि आप बिना युद्ध किये किसी तरह मानेहींगे नहीं तो मुझे युद्ध करना ही पड़ेगा। जब आप खुद ही युद्ध करने के लिए मुझे ललकार रहे हैं, तब यद्यपि आप ब्राह्मण और मेरे गुरु हैं, तथापि आपके साथ युद्ध करने में मैं किसी प्रकार दोषी नहीं हो सकता। भीष्म के इस प्रकार कहने पर उनका और परशुराम का बहुत दिनों तक कुरुक्षेत्र में घमासान का युद्ध हुआ। महाबली भीष्म शस्त्रास्त्र चलाने में बड़े निपुण थे। युद्ध-विद्या के जाननेवालों में जो सबसे श्रेष्ठ थे उन प्राचार्यों से उन्होंने शिक्षा पाइ थी। उसी शिक्षा के प्रभाव से उन्होंने लड़ाई के मैदान में परशुराम को बार बार हार दी। परन्तु परशुगम थे ब्राह्मण और उनके गुरु । इससे भीष्म ने उनको मारा नहीं। उनके प्राण छोड़ दिये । परशुराम ने अपने शिष्य भीष्म की वीरता और युद्ध करने में कुशलता देखकर बहुत प्रसन्नता प्रकट की। उन्होंने भीष्म से हार मान ली और लड़ना बन्द किया। इसके अनन्तर काशिराज की कन्या अम्बा को बुला कर बहुत दीनता दिखाते हुए वे बोले :-- पुत्री !.हमने तुमसे जो बात कही थी उसे पूरा करने का जहाँ तक हो सका यन किया। जितने दिव्य दिव्य अस्त्र हमारे पास थे सब हमने चलाये। जहाँ तक संभव था अपना बल, पराक्रम और युट्ठ-कौशल भी हमने दिखाया। किन्तु महापराक्रमी भीष्म को जीतने में समर्थ न हुए। इससे अब तुम और किसी से सहायता लेकर अपने मन की कामना पूरी करो। अम्बा ने कहा- हे भगवन् ! जब आप ही भीष्म को नहीं जीत सके तब वे देवताओं के द्वारा भी नहीं जीते जा सकते । मैं खुद ही अब कोई ऐसा उपाय करूँगी जिसमें भीष्म का नाश हो ! और किसी के पास जाकर सहायता माँगना मैं व्यर्थ समझती हूँ। इस अवसर पर अम्बा का हृदय क्रोध से और भी भर आया। मारे क्रोध के उसके होंठ काँपने लगे। भीष्म को मारने का उपाय ढूंढ़ निकालने की इच्छा से वह अब तपस्या करने लगी। बहुत दिन तक बिना कुछ खाये पिये उसने तपस्या की। अनेक क्लेश उसने सहे । उसकी घोर तपस्या