पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/२८६

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२५४ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड दुख हुआ कि उसका वर्णन नहीं हो सकता । वे बे-तरह कातर और विकल हो उठे। पुत्रों की जीत की आशा उन्होंने छोड़ दी। मानो उनके प्राण निकल से गये । कुछ देर तक वे काठ की तरह चेष्टा- हीन बैठे रहे । शोक का वेग जरा कम होने पर कैंपते हुए कण्ठ से उन्होंने पूछा :-- हे सञ्जय ! द्रोणाचार्य तो बड़े विचित्र योद्धा थे । शस्त्र चलाने में जैसे वे सिद्धहस्त और फुरतीले थे वैसा एक भी योद्धा इस संसार में नहीं देख पड़ता। फिर धृष्टद्युम्न उन्हें किस तरह मार सके ? हमारे मूढ पुत्रों को जिनके बल-विक्रम का इतना भरोसा था उन्हीं शूर-शिरोमणि उग्रका द्रोणाचार्य ने । दीन दुर्योधन के लिए प्राण छोड़ दिया ! इस समय हम बल-पौरुष को व्यर्थ और भाग्य ही को प्रधान समझते हैं। इसके उत्तर में द्रोणाचार्य के युद्ध और मृत्यु का वर्णन विस्तारपूर्वक करके सञ्जय ने कहा। इस प्रकार महात्मा द्रोणाचार्य ने दुर्योधन के कल्याण की इच्छा से पाण्डवों की दो अक्षौहिणी सेना को मार कर अनेक बड़े बड़े योद्धाओं को यमपुरी भेजा, और कितने ही महारथी वीरों का मान- मर्दन किया। ऐसे, न मालूम कितने, महा-कठिन काम करके, सब लोगों को दारुण दुःख देकर, प्रलय- काल के जलते हुए सूर्य की तरह परम प्रतापी आचार्य द्रोण सदा के लिए इस लोक से अस्त हो गये। हमें धिक्कार है जो यह सब अपनी आँखों से देख कर भी हम अब तक जीते हैं। ५--अन्त का युद्ध महा-पराक्रमी द्रोणाचार्य ने पाँच दिन तक घोर युद्ध करके, इस नाशवान् देह को छोड़ ब्रह्म- लोक का रास्ता लिया। दुर्योधन आदि नरेश अत्यन्त दुखी हो कर शोक से व्याकुल अश्वत्थामा को घेर कर बैठ गये और उन्हें समझाने बुझाने लगे । इस तरह रोते-धोते और विलाप करते वह लम्बी रात बीत गई । तदनन्तर राजा दुर्योधन ने कहा :- __ हे बुद्धिमान् नरपतिगण ! जो कुछ होने को था हो गया। अब आप लोग अपनी अपनी राय दीजिए कि इस समय क्या करना चाहिए। कुरुराज दुर्योधन के मुँह से यह बात सुन कर सिंहासनों पर बैठे हुए राजा लोगों ने अनेक तरह की बातें कह कर युद्ध जारी रखने की सलाह दी । किसी ने भौंहें टेढ़ी की; किसी ने भुजा उठाई; किसी ने ओठ फरकाये । इस प्रकार अङ्ग-भङ्गी और वचन, दोनों, के द्वारा सबने यही सलाह दी कि युद्ध बन्द न करना चाहिए । यह देख आचार्य के पुत्र अश्वत्थामा ने कहा :- हे वीरो अपने प्रभु की हृदय से शुभ-कामना करनेवाले देवतुल्य जिन महारथी वीरों ने हमारे वश में होकर युद्ध किया उनमें से अनेक वीर इस समय मर चुके हैं। तथापि, इस इतनी बात से जीत की अाशा न छोड़नी चाहिए। अच्छी नीति और अच्छी युक्ति से दैव भी अपने अनुकूल कर लिया जा सकता है । अतएव, आइए, हम लोग सर्वगुण सम्पन्न, अस्त्रविद्रा के उत्तम ज्ञाता, महा-योद्धा कर्ण को सेनापति के पद पर नियुक्त करके शत्रुओं का नाश करें। बिना परिश्रम किये ही वे युद्धस्थल में पाण्डवों को परास्त कर सकेंगे। अश्वत्थामा के ये बड़े ही प्रीति-जनक वाक्य सुन कर दुर्योधन को परमानन्द हुआ। भीष्म और