पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३१३

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२८१ दूसरा खण्ड] युद्ध की समाप्ति यह कह कर हल के आकार का अपना शस्त्र उठा कर बलदेव भीमसेन पर झपटे :- तब कृष्ण ने अपने दोनों हाथों से पकड़ कर बलराम को रोक लिया और कहने लगे :- हे महात्मा ! क्रोध मत करो। इतने क्रोध का कोई कारण नहीं । सोच देखो, पाण्डव लोग हमारे आत्मीय हैं। उनसे और हमसे बहुत निकट का सम्बन्ध है। कौरवों के कारण विपद के अगाध सागर में बहुत दिन तक डूबे रहने के बाद कहीं आज इन्हें उससे निकलने का मौका मिला है। इनकी उन्नति से ही हमारी उन्नति है-इनकी भलाई से ही हमारी भलाई है। अतएव हमें कोई काम ऐसा न करना चाहिए जिससे इन्हें हानि पहुँचे। इसके सिवा, भीमसेन ने भरी सभा में दुर्योधन की जंघा तोड़ने की प्रतिज्ञा की थी। क्षत्रिय होकर इस प्रतिज्ञा को वे टाल नहीं सकते थे। नम्रता से भरे हुए कृष्ण के ऐसे वचन सुन कर बलराम रुक गये। परन्तु क्रुद्ध होकर कहने लगे :- हे कृष्ण ! इस समय सम्बन्ध और हानि-लाभ की बात कहना वृथा है। अर्थ और काम, यही दो बातें, धर्म के नाश का प्रधान कारण हैं। तुम चाहे जितनी युक्तिपूर्ण बातें कहो, हमारे मन से यह धारणा कभी नहीं जा सकती कि भीमसेन ने अधर्म किया है। लोक में भी सब लोग यही कहेंगे कि भीम कूट-योद्धा हैं; युद्ध में वे छल-कपट से काम लेते हैं। यह कह कर बलराम मारे रिस के रथ पर सवार हुए और द्वारका को चल दिये । जेठे भाई बलराम के तिरस्कार वाक्य सुन कर कृष्ण का चित्त चञ्चल हो उठा। वे युधिष्ठिर के पास गये और पूछने लगे -- हे धर्मराज ! तुम धर्म की गूढ बातें जानते हो। अतएव हमसे बतलाओ, क्या समझ कर- किस युक्ति के अनुसार-तुमने भीमसेन को इस अधर्मसंगत काम के लिए उन्हें क्षमा किया। युधिष्ठिर बोले :-हे वासुदेव ! भीमसेन का यह काम हमें पसन्द नहीं। किन्तु धृतराष्ट्र की सन्तान की शठता और बुरे व्यवहार के कारण हमारे भाई तङ्ग आ गये हैं-उन्हें न मालूम कितने कष्ट भोग करने पड़े हैं। इससे वैर की आग बुझाने के इरादे से, बीच बीच में किये गये उनके अधर्मपूर्ण कामों पर भी हम धूल डाल दिया करते हैं। इस बात से कृष्ण को किसी तरह सन्तोष हुआ। वे प्रसन्न हो गये। इधर, दुर्योधन को जमीन पर गिरा देख पाण्डवों के पक्ष के पाञ्चाल और सञ्जय आदि योद्धा अपने अपने डुपट्टे हिला कर सिंहनाद करने लगे। किसी ने धनुष की टङ्कार की, किसी ने शङ्ख बजाया, किसी ने दुन्दुभी बजा कर अपनी प्रसन्नता प्रकट की । कोई कोई हँसकर कहने लगे :- हे भीम ! गदा-युद्ध में प्रवीण कुरुराज दुर्योधन को गिरा कर आज तुमने बहुत बड़ा काम किया। आज तुमने सौभाग्य से वैर-भाव की आग बुझा दी; परम धार्मिक युधिष्ठिर का अहित करनेवाले पापी दुर्योधन के मस्तक पर पैर रख दिया। इस पर कृष्ण ने कहा :- हे भूपाल-वृन्द ! प्राय: मरे हुए शत्रु को दुर्वचन कहना उचित नहीं। जिस समय इस निर्लज्ज दुर्योधन ने लोभ के कारण अपने हितचिन्तकों और मित्रों का उपदेश न सुना था उसी समय हमने इसे मरा हुआ समझ लिया था। इस समय यह नराधम काठ की तरह जड़वत् जमीन पर पड़ा है; इसकी गिनती न शत्रु ही में हो सकती है, न मित्र ही में। इससे, इसको अब और कटुवाक्य कहना मुनासिब नहीं । चलो, रथ पर सवार होकर हम लोग यहाँ से चल दें।' कृष्ण के ये तिरस्कारपूर्ण वचन दुर्योधन से किसी तरह नहीं सहन हुए। दोनों हाथों को फा०३६