पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३१५

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दूसरा खण्ड ] युद्ध की समाप्ति २८३ ___ इस प्रकार बातें करते करते कृष्ण और पाण्डव सात्यकि को साथ लेकर पवित्र-जल-पूर्ण नदी . के किनारे गये । कृष्ण के उपदेश के अनुसार वहाँ उन्होंने मङ्गल-कार्य समाप्त करके वह रात वहीं बिताने की ठानी। इधर, द्रौपदी के पाँचों पुत्रों को लेकर श्रानन्द से सिंहनाद करते हुए पाञ्चाल लोगों ने कौरवों के शिविर की ओर प्रस्थान किया । वहाँ कुछ देर ठहर कर वे दुर्योधन के डेरों में घुसे। उनके भीतर दास, दासी, सोना, चाँदी, मणि और मोती आदि जो अनेक प्रकार का राजसी सामान मिला, उसे अपने कब्जे में करके वे लोग मारे खुशी के कोलाहल मचाने लगे। __महावीर अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा ने दुर्योधन की जंघा टूटने का जो हाल सुना तो तुरन्त ही वे दुर्योधन के पास दौड़े आये । वहाँ आकर उन्होंने देखा कि वायु के वेग से गिरे हुए एक बहुत बड़े पेड़ की तरह महाराज दुर्योधन जमीन पर पड़े हुए हैं। उनके सारे शरीर पर धूल लिपट रही है और माथे पर भौंहें क्रोध से टेढ़ी हो रही हैं। यह दशा देख इन तीनों वीरों का कलेजा शोक से फटने लगा। वे रथ से उतर पड़े और दुर्योधन के पास जाकर जमीन पर बैठ गये। तदनन्तर, आँखों में आँसू भरे हुए द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा रुंधे हुए कण्ठ से दुर्योधन को पुकार कर कहने लगे :- हे राजेश्वर ! धूल में लिपटे हुए तुम्हें जमीन पर पड़ा देख मन में यही धारणा होती है कि संसार के सारे पदार्थ तुच्छ हैं; किसी में कुछ भी सार नहीं। हाय ! हाय ! इन्द्र के तुल्य पराक्रमी होने पर भी अन्त में तुम्हारी यह गति हुई ! प्राचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को इस प्रकार विलाप करते सुन दुर्योधन ने हाथ से आँखें पोछी और इस प्रकार कहना प्रारम्भ किया :- हे वीर-वर ! जगत् की रचना करनेवाले विधाता ने मनुष्य के जीवन को ऐसा ही क्षणभंगुर बनाया है। उत्पन्न होकर सबको एक न एक दिन यह लोक छोड़ जाना पड़ता है। यहाँ के सारे सुख थोड़े दिन के लिए हैं । सम्पत्ति के बाद विपत्ति का आना स्वाभाविक है। हम भी विधना के इन्हीं नियमों के अनुसार आज इस दशा को प्राप्त हुए हैं। कुछ भी हो, हम इसे अपना अहोभाग्य समझते हैं जो विपद में भी हमने युद्ध से मुँह नहीं मोड़ा। यह भी हमारे लिए कम भाग्य की बात नहीं जो पापी पाण्डव बिना छल-कपट किये हमारा संहार करने में समर्थ नहीं हुए। इस बात को भी हम अपने सौभाग्य का कारण समझते हैं कि अपने बन्धु-बान्धवों और भाइयों के साथ हम युद्ध के मैदान ही में मारे गये। परन्तु, सबसे अधिक सौभाग्य की बात हमारे लिए यह है कि तुम तीनों वीर इस नरनाशकारी युद्ध से जीते बच गये । जहाँ तक तुमसे हो सका तुमने हमारे पक्ष को जिताने का यत्न किया। परन्तु, भाग्य के फेर से तुम्हारा प्रयत्न निष्फल गया; उसके लिए तुम दोषी नहीं ठहराये जा सकते । तुमसे जो कुछ बना तुमने किया। सफलता न हुई तो इसमें तुम्हारा क्या दोष ? विधाता ने जो बात जिसके भाग्य में लिख दी है उसे कोई नहीं मेट सकता । अतएव हमारे मारे जाने के विषय में और शोक करना वृथा है । यदि वेद-वाक्य सत्य हैं तो हमें अवश्य ही स्वर्गलाभ होगा। यह कहते कहते मारे पीड़ा के दुर्योधन अत्यन्त कातर और विह्वल हो उठे। कुरुराज दुर्योधन की यह दशा देख महा-तेजस्वी अश्वत्थामा क्रोध से प्रलय-काल की अग्नि के समान जल उठे। हाथ मलते हुए रुंधे हुए कण्ठ से वे कहने लगे :- ___महाराज ! पाण्डव लोग महा नीच है। उन्होंने अधर्म से हमारे पिता का नाश किया। परन्तु पिता की मृत्यु से भी हम उतने दुखी नहीं हुए जितने कि तुम्हें इस दशा में देख हो रहे हैं। खैर, आज तक हमने जो कुछ दान-पुण्य, धर्म-कर्म पूजा-पाठ और सत्याचरण आदि किये हैं उन