पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३१९

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दूसरा खण्ड] युद्ध की समाप्ति २८७ में धृष्टद्युम्न के दुःख से भरे हुए चिल्लाने से स्त्रियों और संतरी जाग पड़े । उन्होंने अश्वत्थामा को भूत समझा । इससे मारे डर के उनके मुँह से शब्द तक न निकला । किसी को मुँह से बात निकालने का भी साहम न हुआ। इसके अनन्तर और शत्रओं को मारने के लिए अश्वत्थामा धृष्टद्युम्न के शिविर से बाहर निकले । नब वहाँ बे-तरह चिल्लाहट मची-जोर जोर से रोने की आवाज आने लगी। उसे सुन कर प्रधान प्रधान पाञ्चाल वीर जाग पड़े और उसी तरफ को दौड़े। बहुतों ने अश्वत्थामा को देख कर झट पट कवच पहनें और उन्हें घेर लिया। परन्तु अश्वत्थामा अस्त्र-शस्त्र चलाने में बड़े प्रवीण थे। उन्होंने रुद्रास्त्र-द्वारा उन सब योद्धाओं को बात की बात में मार गिराया । इसके बाद उन्होंने तलवार निकाल ली और काल की तरह चारों ओर घूम घूम कर सोते हुए और अधजगे पाञ्चाल लोगों का एक एक करके संहार कर डाला । सारा बदन रुधिर से सराबोर होने के कारण उनका उस समय का रूप बहुत ही भयानक मालूम होता था। इससे बहुत लोगों ने उनको राक्षस समझा । उन्हें दूर ही से देख कर वे भागे परन्तु, द्वार पर कृपाचार्य और कृतवम्मों के शिकार हो गये। वहाँ से आगे न जा सके । वहीं उन्हें प्राण देना पड़ा। पाण्डवों के शिविर में फिरते फिरते अश्वत्थामा को द्रौपदी के पांच पुत्र देख पड़े। उन पांचों ने तुरन्त ही हथियार उठा कर अश्वत्थामा से अपनी रक्षा करने की बहुत कुछ चेष्टा की । परन्तु अश्वत्थामा से वे पेश न पा सके। उन्होंने पाँचों भाइयों को अपनी तलवार से बड़ी ही निर्दयतापूर्वक मार डाला। इधर चारों ओर भीषण कोलाहल होने से डर के मारे हाथियों और घोड़ों ने अपने बन्धन तोड़ डाले और सारे शिविर में बे-तहाशा दौड़ने लगे। उनके पैरों के नीचे पड़ कर सैकड़ों योद्धा कुचल गये। उस समय एक तो रात का घोर अन्धकार, दूसरे हाथी-घोड़ों की भगदर । इस दशा में सोते से एकाएक जगे हुए वीरों ने अपने ही पक्षवालों को अपना शत्र समझा । उन्होंने एक दूसरे को पहचाना ही नहीं । अतएव उन्होंने परस्पर मार काट प्रारम्भ कर दी। फल यह हुआ कि हजारों वीर अपने ही पक्षवालों के हथियारों की मार से ज़मीन पर लोट पोट हो गये। मानो काल ने उनसे ऐसा करा कर अश्वत्थामा की सहायता की। इस समय कृतवर्मा के भी मन में आया कि अश्वत्थामा की सहायता करनी चाहिए । इससे उन्होंने शिविर में जगह जगह आग लगा दी। आग धाय धायें जलने लगी। सारा शिविर अमिमय हो गया। तब कृतवर्मा और कृपाचार्य भी अश्वत्थामा से आ मिले । फिर इन तीनों योद्धाओं ने पाण्डवों के पक्ष के एक एक भागते हुए योद्धा को काट काट कर जमीन पर बिछा दिया। एक भी मनुष्य बच कर नहीं जाने पाया। । अन्त में, अश्वत्थामा के घुसने के समय शिविर में जैसा सन्नाटा छाया हुआ था, प्रात:काल वैसा ही सन्नाटा फिर छा गया। तब अश्वत्थामा ने अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण समझी और पिता के मारे जाने से जो दुःख उन्हें हुआ था वह भी दूर हो गया। तदनन्तर रुधिर से लदफद हुए और तलवार की मूठ को हाथ से पकड़े वे शिविर से बाहर निकले । कृष्ण के कौशल और अर्जुन के भुजबल की सहायता न पाने से--उनके द्वारा रक्षित न होने से-पाण्डवों की सेना का जड़ से नाश हो गया । यदि कृष्ण और अर्जुन शिविर में होते तो अश्वत्थामा का यह क्रूर कर्म कभी सफल न होता। उसके अनन्तर उन तीनों कौरवों ने एक दूसरे को गले से लगाया। फिर वे परस्पर एक दूसरे का मुंह देख देख खुशी मनाते मनाते और अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते करते शीघ्र ही रथ पर सवार हुए और कुरुक्षेत्र के मैदान में पड़े हुए राजा दुर्योधन के पास गये।