पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३२७

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२९५ दूसरा खण्ड ] युद्ध के बाद की बातें होता तो अन्य पाण्डव तुम्हारी बातों पर ध्यान न देकर तुम्हारे साथ पागलों का सा बर्ताव करते और खुद ही राज्य सँभालते । जब मैं पुत्रहीना होकर भी जीवित रहना चाहती हूँ, तब तुम राज्य करने से क्यों मुँह मोड़ते हो ? तब युधिष्ठिर ने कहा :- हे भाइयो ! हम धर्मशास्त्र और वेद दोनों ही जानते हैं। तुम लोग वीर-व्रतधारी हो; इसलिए शास्त्र की गूढ बातों को नहीं समझ सकते । युद्ध के विषय में तुम लोग जरूर अच्छे अच्छे उपदेश दे सकते हो। किन्तु शास्त्रों के सम्बन्ध में तुम्हें हमारी बात माननी चाहिए। तुम लोग समझत हो कि ऐश्वर्य से बढ़ कर दुनिया में कोई चीज़ नहीं। किन्तु हम इस बात को नहीं मानते । लकड़ी के योग से आग जल उठती है और लकड़ी न रहने से बुझ जाती है। भोग की भी यही बात है। ऐश्वर्या भोग करने ही से ऐश्वर्य प्राप्त करने की इच्छा होती है। इसी लिए शास्त्रकार त्याग और ब्रह्म ज्ञान ही को सबसे बढ़ कर बताते हैं। अतएव तुम लोग भोग-विलाम की व्यर्थ इच्छा न करो। यह सुन कर महर्षि व्यास ने धर्मराज से कहा :- हे युधिष्ठिर ! तुम्हारे भाई वनवास के समय जो आशा रखतं थे उसे एक-दम विफल न करो। कुछ दिन भाइयों के साथ राजधर्म पालन कर और यज्ञ आदि करके तब वन को जाना। पहले संसार के ऋण से उऋण हो लेना; फिर इच्छानुसार काम करना । राज्य की रक्षा के लिए शत्रुओं का नाश करना बुरा नहीं। इससे उसके लिए वृथा दुःख न करो। इसके उत्तर में राजा युधिष्ठिर ने महर्षि कृष्ण-द्वैपायन से कहा :- हे महषि ! संसार में रह कर राज्य करने अथवा अन्य भोग भोगने की हमारी जग भी इच्छा नहीं । पति और पुत्रहीन स्त्रियों का विलाप सुन कर हमारा हृदय शोक से विदीर्ण हो रहा है। हमें किसो तरह शान्ति नहीं। हमें धिक ! हम बड़े राज्य-लोलुप और नीच हैं। हमारे ही लिए हमारे वंश का नाश हुआ। जिन्होंने किसी समय गोद में लेकर हमारा लालन-पालन किया था हमने उन्हीं पितामह भीष्म को राज्य के लोभ से मार डाला । हाय ! यह सोच कर हमारा हृदय जला जाता है कि हमारा सबसे अधिक विश्वास करनेवाले महात्मा द्रोणाचार्य को हमने झूठ बोल कर धोखा दिया। हमारे बड़े भाई कर्ण हमारे ही लिए बिना हाथ पैर डुलाये मारे गये, फिर हमारे बराबर पापी और कौन होगा ! जब से हमने बालक अभिमन्यु को उस विकट व्यूह के भीतर जाने की आज्ञा दी तब से कृष्ण और अर्जुन की तरफ हमारी आँख नहीं उठती। पुत्र-हीना द्रौपदी का शाक देख कर हमें क्षण भर भी सुख और शान्ति नहीं मिल सकती। हमारे ही लिए ये सब अनर्थ हुए । इसलिए, हे भाइयो ! हम विनीत भाव से तुम लोगों से कहते हैं कि हमें मर जाने की आज्ञा दो। युधिष्ठिर की बातों को अच्छी तरह सुन कर व्यासदेव ने कहा :- यदि चिरस्थायी शान्ति पाना चाहते हो तो सुख और दुख दोनों की परवा न करके कर्तव्य- पालन करने की चेष्टा करो। यदि तुम युद्ध की घटनाओं पर अच्छी तरह विचार करोगे तो तुम्हें मालूम होगा कि तुम्हारे मृत वंशज और अन्य क्षत्रिय लोग यशस्वी होने और बहुत सा धन पाने की धुन में अपने ही अपराध से मारे गये हैं । इसके उत्तरदाता तुम नहीं हो। तुम अपने कामों पर भी विचार करो। ऐसा करने से तुम्हारी समझ में आ जायगा कि व्रतपरायण और शान्तस्वभाव होकर भी केवल देव की प्रेरणा से अपने प्राण तथा धन की रक्षा के लिए तुमने युद्ध किया है । काल आने ही पर मनुष्य पैदा होता या मरता है । उसके लिए शोक न करना चाहिए । मामूली आदमियों की तरह हाय ! क्या हुआ, हाय ! क्या हुआ—कह कर विलाप करने से दुख और बढ़ता है। दृढ़तापूर्वक काम करने ही से शान्ति मिलती है। अब राजधर्म के अनुसार काम करके इस अनुचित दुःख का प्रायश्चित्त करो।