पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३३०

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२९८ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड पाण्डवों को धन्य है। जब आप हम लोगों को गुणवान् समझते हैं तब आपको चाहिए कि हम पर अवश्य कृपा करें । महाराज धृतराष्ट्र हमारे पिता के बराबर हैं; इसलिए यदि आप लोग हमें प्रसन्न रखना चाहते हैं तो सदा उनके आज्ञाकारी और हितकारी बने रहिएगा। सारे वंश का नाश करके भी हम केवल उन्हीं की सेवा करने के लिए जीवित हैं । यह सारा साम्राज्य और पाण्डव अब उन्हीं के अधीन हैं । आशा है, आप हमारी यह बात न भूलेंगे। यह कह कर और बहुत सा धन देकर धर्मराज ने ब्राह्मणों को बिदा किया। जब पुरवासी और प्रजावर्ग सब चले गये तब युधिष्ठिर ने भीमसेन को युवराज, बुद्विमान् विदुर को मन्त्री, वृद्ध सञ्जय को उपदेशक, नकुल को सेनापति, अर्जुन को राज्य-रक्षक, सहदेव को शरीर-रक्षक और पुरोहित धौम्य को देवकार्य का अधिकारी बना कर कहा :- ___ तुम लोग राजा धृतराष्ट्र की आज्ञा बराबर मानते रहना । गाँव तथा पुरवासियों और प्रजावर्ग का कोई काम करना हो तो वृद्ध राजा की आज्ञा से करना । इस समय तुम लोग घायल और थके हुए हो; इसलिए अपने अपने घर जाकर थकावट दूर करो और विजय का आनन्द मनाओ। यह कह कर युधिष्ठिर ने चचा धृतराष्ट्र की आज्ञानुसार भीमसेन को दुर्योधन का महल, अर्जुन को दुःशासन का महल और नकुल-सहदेव को धृतराष्ट्र के अन्य पुत्रों के महल दिये । तब सब लोग अपने अपने महलों में गये। इस तरह धर्मराज युधिष्ठिर राज्य को अपने अधिकार में करके, चारों वर्गों की प्रजा को अपने अपने काम में लगाकर, आश्रित लोगों के पालन-पोषण का यथोचित प्रबन्ध करके तथा और जो जो ज़रूरी काम थे सब करके एक दिन कृष्ण से बोले :- हे कृष्ण ! कहो सुख से तो हो ? कुछ तकलीफ़ तो नहीं ? तुम्हारी ही कृपा से जय और यश प्राप्त करके हम लोगों ने राज्य पाया है। यदि तुम्हारी कृपा हम पर अब भी बनी हो तो हम लोगों को साथ लेकर महात्मा भीष्म के पास चलो। यदि उनसे उपदेश मिले ना हम लोग धर्म के अनुसार राज्य की रक्षा कर सकेंगे। युधिष्ठिर की बात सुन कर कृष्ण सात्यकि से बोले :- हे सात्यकि ! हमारा ग्थ शीघ्र ही तैयार करने की आज्ञा दो। तब राजा युधिष्ठिर ने भी अर्जुन से कहा :- हे धनञ्जय ! हमाग रथ भी तैयार करने को कह दो। हमारे साथ सेना के चलन की आवश्य- कता नहीं। आज सिर्फ हमीं कई आदमी भीष्म के दर्शन करने चलेंगे। महात्मा भीष्म की योग-समाधि में विघ्न डालना उचित नहीं । इसलिए कोई फालतू आदमी हमारे साथ न चले । धर्मराज के आज्ञानुसार अर्जुन ने रथ तैयार करके उन्हें सूचना दी। जब सात्यकि के साथ कृष्ण अपने रथ पर बैठ गये तब पांचां पाण्डव भी रथ पर सवार हुए और आपस में बातचीत करते हुए चले। उनके रथ बड़ी तेजी से और बाल की तरह गरजते हुए चलने लगे। थोड़ी देर बाद महात्मा कृष्ण और युधिष्ठिर आदि वीर कुरुक्षेत्र पहुँच गये। फिर, जह। महर्षियों से घिरे हुए पितामह भीष्म बाणों की सेज पर पड़े थे वहाँ गये। तब शीघ्र ही रथ से उतर कर और दाहना हाथ उठा कर उन लोगों ने मर्षियों को प्रणाम किया। नक्षत्रों से घिरे हुए चन्द्रमा के समान युधिष्ठिर, भाइयों और कृष्ण के साथ, महात्मा भीष्म के पास गये। उनको आकाश से गिरे हुए सूर्य की तरह देख कर मारे डर के वे वहाँ खड़े रह गये । यह देख कर देवर्षि नारद कहने लगे :-