पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३३५

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दूसरा खण्ड ] पाण्डवों का एकाधिपत्य ३०३ हे महावीर ! मालूम होता है कि किसी विशेष कान से तुम हमारे पास आये हो । कुछ भी हो, कहो, क्या काम है । हम उसे अवश्य करेंगे। धर्मराज के इतना कहने पर वाक्य-चतुर अर्जुन ने विनीत भाव से कहा :- महाराज ! हम लोगों के प्यारे मित्र कृष्ण को द्वारका से आये बहुत दिन हुए। अब वे पिता से मिलने के लिए बड़े उतावले हो रहे हैं। इससे यदि आपकी आज्ञा हो तो वे अपने नगर जायें । यह बात सुन कर धर्मराज कृष्ण से बोले :- हे वासुदेव ! अब तुम पिता के दर्शन करने के लिए निर्विन द्वारका जाव। मामा वसुदेव और महावीर बलराम से हम बहुत दिन से नहीं मिले । तुम द्वारका जाकर उन लोगों से हमारा और भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव का प्रणाम कह देना । हमें और हमारे भाइयों को भूल न जाना । तुम्हें जाने से हम नहीं रोकते, किन्तु जब हम अश्वमेध यज्ञ करें तब तुम्हें अवश्य आना होगा। द्वारका जाते समय तरह तरह के रत्न और जो चीजें तुम्हें पसन्द हों लेते जाना। हमने तुम्हारे ही प्रभाव से वैरियों का मारा और साम्राज्य प्राप्त किया है । इसलिए हमारा सब धन-रत्न तुम्हारा ही है। तब कृष्ण ने कहा :- महाराज ! हम आपको पृथ्वी का स्वामी देख कर बड़े ही सन्तुष्ट हुए हैं। हमारे घर के हाथी. थोड़े, और रत्नों को आप अपना ही समझिए। कृष्ण का शिष्टतापूर्ण उत्तर सुन कर युधिष्ठिर ने यथोचित सत्कार के बाद उनको बिदा किया। तब महात्मा कृष्ण, बुआ कुन्ती और विदुर आदि गुरुजनों की आज्ञा लेकर, और बहन सुभद्रा के साथ रथ पर चढ़ कर, हस्तिनापुर से चले। विदुर, चारों पाण्डव और अन्य नगर-निवासी उनके पीछे पीछे चले। वे लोग कुछ ही दूर गये होंगे कि बुद्धिमान् कृष्ण ने बड़े मधुर शब्दों में उन लोगों से लौट जाने के लिए अनुरोध किया और दारुक तथा सात्यकि को तेजी से रथ हाँकने के लिए आज्ञा दी । तब पीछे पीछे जानेवाल लोग उनका अभिनन्दन करके लौट आये । अर्जुन ने अपने मित्र कृष्ण को बार बार आलिङ्गन किया और जब तक उनको देख सके तब तक वगबर देखते रहे । कृष्ण भी प्रिय मित्र अर्जुन को टकटकी लगा कर देखने लगे । जब एक दूसरे की आँखों की ओट हो गया तब अर्जुन वहाँ से बड़े कष्ट से लौटे। इधर कृष्ण और सात्यकि हवा की तरह तेज़ घोड़ोंवाले रथ पर नद, नदी, वन और पतों को पार करते हुए द्वारका नगरी के पास पहुँचे। इस समय रैवतक पर्वत पर एक बहुत बड़ा महोत्सव भी शुरू हो गया था। इस कारण तरह तरह के गहनों से शोभायमान यदुवंशी योद्रा पर्वत पर विहार करते थे। यह देख कर कृष्ण और सात्यकि रथ से उतर पड़े और प्रनतापूर्वक पर्वत पर गये । वहाँ उनके पहुँचने पर सब लोग बड़ी खुशी से उन लोगों के साथ कृष्ण के घर की तरफ़ चले। अपने घर में सबका आदर-सत्कार करके और कुशल-समाचार पूछ कर कृष्ण ने दुखी मन से माता-पिता को प्रणाम किया। इसके बाद पैर धोकर जब वे आसन पर बैठे तब सब यादव लोग चारों तरफ़ बैठ गये । कृष्ण के विश्राम ले चुकने पर उनके पिता बोले :- बेटा ! हमने कितने ही आदमियों के मुँह से कौरवों और पाण्डवों की लड़ाई का हाल सुना है। पर हमने इस अद्भुत युद्ध को अपनी आँखों देखा है । इसलिए हम तुमसे सुनना चाहते हैं कि पाण्डवों के साथ भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य आदि का युद्र किस तरह हुआ था। तब कृष्ण कहने लगे :--