पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४

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१४ त्यादि सचित्र महाभारत [पहला खण्ड मित्र भी बनाया । इस प्रकार मगध, मिथिला, काशी श्रादि अनेक देशों के राजों को अपने अधीन करके, और अतुल धन-रत्न लेकर, महाराज पाण्डु ने अपने राज्य का विस्तार और यश दोनों खब बढ़ाये । उन्होंने बड़ा नाम पैदा किया और दूर दूर तक के देशों को अपने राज्य में शामिल कर लिया । राजा भरत और कुरु की कीर्ति जो कुछ मलिन हो गई थी उसे, इस तरह, उन्होंने फिर से उज्ज्वल किया। ___ जिन राजों का युद्ध में हराया था उनको अपने चारों तरफ़ लिये, और उनके मुँह से 'धन्य धन्य' शब्द सुनते, प्रसन्नचित्त महाराज पाण्डु हस्तिनापुर को लौट आये। सारे काम निर्विन करके विजयी पाण्डु अपनी राजधानी को लौट रहे हैं, यह सुन कर भीष्म को बड़ा आनन्द हुआ। वे आगे बढ़ कर पाण्डु से मिलने आये । पाण्डु ने भीष्म के पैर छुए। नगरनिवासियों और प्रजा से शिष्टतापूर्वक बातें कीं । मबसे कुशलसमाचार पूर्छ । भीष्म पाण्डु से प्रेमपूर्वक लिपट कर मिले । उस समय भीष्म को इतना आनन्द हुआ कि उनकी आँखों से आँसू निकल आये। शंख, दुन्दुभि इत्य बाजे बजने लगे। नगरनिवासियां के आनन्द की सीमा न रही । नगर में प्रवेश करकं उस सारे धन-रत्न को, जिसे पाण्डु ने दिग्विजय में पाया था, गुरुजनों को देकर उन्होंने अपने को कृतार्थ माना। कुछ समय तक राजधानी में रह कर पाण्डु ने नाना प्रकार के सुखभोग किये । उसके अनन्तर शिकार के बहाने उन्हें बाहर जाकर घूमने फिरने की इच्छा हुई। इस निमित्त हिमालय पर्वत के दक्षिण में जो बहुत ही रमणीय तराई है वहाँ वे गये । वहाँ पर कभी वे अपनी दोनों गनियों को साथ लेकर पर्वत के ऊपर सैर करते थे, कभी विशाल शाल वृक्षों के वन में शिकार का सुख लूटते थे। पाण्डु को भीष्म बहुत ही चाहते थे। वे हमेशा उन्हें सुखी रखने की चेष्टा किया करते थे। जिसमें पाण्डु को किसी तरह का कष्ट न हो, इसलिए खाने-पीन आदि की सब चीजें व निय पाण्डु के पास पहुँचात थे । इसमें कभी अन्तर न पड़न पाता था । वनवासी लोग भी पाण्ड का तेज और ऐश्वर्य देख कर और यह जान कर कि ये कुरु-देश के महागज हैं, सब तरह उ नकी सेवा करते थे। एक बार शिकार खेलते खेलते पाण्डु ने एक विकट वन में प्रवेश किया। वहाँ उन्होंने विहार करते हुए एक मृग और एक मृगी को देखा । इस पर उनसे न रहा गया। उन्होंने उस जोड़े पर तीर चलाया और मृग को मार कर पृथ्वी पर गिरा दिया। मृगों का यह जोड़ा बनावटी था। एक ऋषिकुमार मृग बन कर अपनी स्त्री सहित वन में क्रीड़ा कर रहा था। महाराज पाण्डु का तेज बाण लगते ही वह पीड़ा से व्याकुल हो गया। इतने ज़ोर से उसे बाण लगा कि उसका प्राण निकलने लगा। मरने की पीड़ा से वह चिल्लाने लगा। तब महाराज पाण्ड ने जाना कि मग के धोखे मैंने ब्राह्मण-कुमार का घात किया। यह जान कर वे बहत व्याकल हए और बेतरह डरे। तुरन्त ही वे उस मुनि-कुमार के पास दौड़े आये और व्याकुल वचनों से अपना अपराध क्षमा कराने के लिए विनती करने लगे। उनके कातर वचन सुन कर ऋषि-कुमार ने कहा : महाराज! आपने मुझे पहचाना नहीं ! आपने नहीं जाना की मैं ब्राह्मण हूँ। यदि आप जानते तो कभी मुझ पर बाण न चलाते । इससे आपको मैं दोष नहीं देता। परन्तु आपने एक ऐसे कुल में जन्म लिया है जो सब तरह निष्कलङ्क और उज्ज्वल है। फिर कैसे आपको विहार करते हुए मृगों के • जोड़े पर बाण चलाने की इच्छा हुई ? ऐसे अवसर पर भी क्या कोई समझदार आदमी किसी जीव के जोड़े को मारने का यत्न करता है ? राजा ने बहुत लज्जित होकर कहा : हे ऋषिपुत्र ! शिकार करते समय मृग को देखते ही उस पर बाण चलाने का मुझे अभ्यास हो गया है । मृग देख कर बाण चलाये बिना मुझसे रहा ही नहीं जाता। इसी से मैंने अच्छी तरह