पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४१

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३०९ दूसरा खण्ड] अश्वमेध यज्ञ महाराज वनदत्त यह बात मान कर अपने घर गये। ____ इसके बाद घोड़ा सिन्धु देश में पहुँचा । वहाँ जयद्रथ की मृत्यु का स्मरण करके सिन्धु देश के राज-पुरुषों ने अर्जुन पर आक्रमण किया। धर्मात्मा अर्जुन ने बड़े भाई के उपदेश को याद करके युद्ध के मद से मतवाले उन वीरों से कहा :-- हे योद्धा लोगो ! तुममें से जो कोई हमसे हार मान लेगा उसे हम न मारेंगे। यह बात सुन कर सिन्धु देश के वीर क्रोध से उन्मत्त होकर लड़ने दौड़े। घोर युद्ध होने लगा। अर्जुन के बाणों से पीड़ित होकर भी सिन्धु-देशवासी प्राणों की परवा न करके बड़े उत्साह से लड़ने लगे। यह देख कर अर्जुन बिगड़ उठे । उन लोगों के अस्त्रों को उन्होंने रास्ते ही में काट डाला। फिर सिंह की तरह गरज कर तीक्ष्ण बाणों के द्वारा जीतने की इच्छा से आये हुए उन वीरों का वे संहार करने लगे। इस पर कोई तो भागा; किसी ने हथियार ही रख दिये; पर किसी किसी ने फिर अर्जुन पर धावा किया। इससे युद्ध-स्थल बढ़े हुए समुद्र की तरह क्षुब्ध हो उठा। अर्जुन ने सिन्धु-देशवालों की बड़ी दुर्दशा की । धृतराष्ट्र की पुत्री दुःशला ने जब यह वृत्तान्त सुना तब पौत्र को गोद में लेकर रोती हुई रथ पर वह अर्जुन के पास आई । बहिन को देख कर अर्जुन ने गाण्डीव रख दिया । वे बोले : बहिन ! कहो क्या चाहती हो ? शोक से व्याकुल होकर दुःशला कहने लगी : भाई ! युद्ध में मेरे पति के मरने पर मेरा पुत्र सुरथ अब तक पिता के शोक से बड़ा दुखी था। वह आज तुम्हारे आने की खबर सुनते ही एकाएक ज़मीन पर गिर कर मर गया। अब मैं उसका पुत्र लेकर तुम्हारी शरण आई हूँ। बहिन को दुखी देख अर्जुन ने लज्जा से सिर झुका लिया और कहने लगे :क्षत्रियों के धर्म को धिक्कार है जिसके कारण हमें अपने भाई बन्दों को भी मारना पड़ा। इसके बाद उन्होंने दुःशला को अनेक प्रकार से समझा बुझा कर धीरज दिया और आलिङ्गन करके घर जाने को कहा । दुःशला ने योद्धाओं को लड़ाई बन्द करने की आज्ञा दी । फिर अर्जुन का यथोचित सत्कार करके घर लौट गई। अपनी इच्छानुसार फिरनेवाला वह घोड़ा कितने ही स्थानों में घूमता हुआ मणिपुर पहुँचा । महाराज बभ्रुवाहन पिता के आने का हाल सुनते ही ब्राह्मणों को आगे करके विनीत भाव से उनके पास तरह तरह के धन-रत्न आदि ले आये । पर उनको इस तरह आते देख अर्जुन को अच्छा न लगा। इससे उन्होंने रुष्ट होकर कहा : बेटा ! हम शस्त्र लेकर महाराज युधिष्ठिर के घोड़े की रक्षा करते हुए तुम्हारे राज्य में आये हैं। फिर तुम हमसे क्यों नहीं लड़ते ? इस तरह तिरस्कार होने पर महावीर बभ्रुवाहन ने मुँह नीचे कर लिया और सोचने लगे कि क्या करें। इस समय नाग-कन्या उलूपी को मालूम हो गया कि उसकी सौत का पुत्र पिता द्वारा तिरस्कृत होकर चिन्ता से व्याकुल है । अतएव वह पाताल फोड़ कर वहाँ आ पहुँची और बोली : ___ बेटा ! मैं तुम्हारी सौतेली माता उलूपी हूँ । जब तुम्हारे पिता तुम्हारे राज्य में लड़ने आये हैं तब तुमको उनसे जरूर लड़ना चाहिए । उलूपी के इस उपदेश से उत्तेजित होकर महाराज बभ्रुवाहन ने लड़ने का निश्चय किया । उन्होंने शीघ्र ही कवच पहना और शिरस्त्राण सिर पर धारण किया। फिर सिंह के चिह्नवाली ध्वजा से