पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

दूसरा खण्ड] परिणाम ३१३ काटा । तब ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार पाण्डवों की पत्नी द्रौपदी उस घोड़े के पास बैठी। इसके बाद जब ब्राह्मण लोग शास्त्र के अनुसार उस घोड़े के हृदय का मेद लेकर अग्नि में डालने लगे तब भाइयों समेत धर्मराज युधिष्ठिर वह पवित्र धुआँ सूंघने लगे । अन्त में सोलह ऋत्विक लोगों ने उस घोड़े के बचे हुए अङ्गों की आहुतियाँ अग्नि में डाली। इस तरह अश्वमेध यज्ञ समाप्त होने पर शिष्यों के साथ भगवान् वेदव्यास इन्द्र की तरह तेजस्वी युधिष्ठिर को बार बार धन्यवाद देने लगे। इसके बाद धर्मराज ने ब्राह्मणों को कई करोड़ अशरफियाँ दान की और वेदव्यास को तो अपना सारा राज्य ही दे डाला। इस पर कृष्णद्वैपायन ने कहा:--- महाराज ! तुम्हारा दिया हुआ राज्य हम तुम्हीं को देते हैं। इसके बदले में तुम ब्राह्मणों को धन दो। युधिष्ठिर ने ऋत्विक लोगों को तिगुना धन दिया । तब वे लोग सोने के उस ढेर को बाँट कर उत्साह के साथ और और ब्राह्मणों को देने लगे। यज्ञमण्डप में सोने के जो तोरण, बर्तन, अलङ्कार आदि थे उन्हें भी युधिष्ठिर की आज्ञा से ब्राह्मणों ने बाँट लिया। मतलब यह कि महाराज युधिष्ठिर का ऐसा यज्ञ और कभी किसी का नहीं हुआ। यज्ञ समाप्त हो जाने पर वह अनन्त धन लेकर ब्राह्मण लोग अपने अपने घर गये । अन्त में धर्मराज युधिष्ठिर आये हुए राजों को असंख्य हाथी, घोड़े, वस्त्र, अलङ्कार और रन श्रादि देकर बिदा करने लगे। इस समय उन्होंने महाराज बभ्रुवाहन को बड़े आदर से अपने पास बुलाया और धन, रत्न आदि से उनका अच्छी तरह सत्कार करके मणिपुर लौट जाने की अनुमति दी । कृष्ण आदि यादव लोग भी पाण्डवों से अथोचित आदर-सत्कार पाकर उनकी अनुमति से द्वारका लौट गये । इस तरह राजा लोग बिदा हो गये तव भाइयों के साथ धर्मराज युधिष्ठिर भी प्रसन्नता-पूर्वक अपने घर गये। १०-परिणाम अश्वमेध यज्ञ के समाप्त हो जाने पर पाण्डवों का साम्राज्य खूब दृढ़ हो गया। वे लोग राजा धृतराष्ट्र के आज्ञानुसार राज्य करने लगे । विदुर, सञ्जय और वेश्या के पुत्र युयुत्सु धृतराष्ट्र के पास सदा बने रहते थे और भीमसेन आदि वीर, युधिष्ठिर के आज्ञानुसार, सदा उनकी सेवा किया करते थे। कुन्ती, द्रौपदी और सुभद्रा श्रादि पाण्डव-स्त्रियाँ गान्धारी की सेवा-शुश्रूषा प्रति दिन गुरुपत्नी की तरह किया करती थीं। धर्मराज अपने मन्त्रियों और भाइयों से यह कह कर उन्हें सदा सावधान किया करते थे :- राजा धृतराष्ट्र पुत्र-विहीन हो गये हैं। इसलिए तुम लोग वही काम करना जिससे उनको कुछ भी दुःख न पहुँचे। अन्धे राजा हमारे और तुम्हारे सबके पूज्य हैं। जो उनकी आज्ञा मानेगा वह हमारा मित्र और जो न मानेगा वह शत्र है। अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवों के श्राद्ध में वे जितना धन चाहें दान कर सकते हैं। पाण्डवों को इतना नम्र और आज्ञाकारी देख कर धृतराष्ट्र उन पर बड़े प्रसन्न रहने और फा०४०