पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३१४ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड सुरवपूर्वक समय बिताने लगे। पतिव्रता गान्धारी भी शोक त्याग कर उन लोगों को पुत्र की तरह स्नेह करती थीं। मतलब यह कि पाण्डवों ने उनको जितना प्रसन्न किया उतना उनके पुत्र भी न कर सके थे। पर केवल भीमसेन उनको प्रसन्न न कर सके, क्योंकि धृतराष्ट्र की अनीति के कारण जो जो घटनायें हुई थीं उनको भीमसेन न भूले थे। इसलिए अन्धगज को देखते ही उन्हें दुःख होता था। युधिष्ठिर को प्रसन्न करने के लिए वे बे-मन दूसरों के द्वारा उनकी सेवा कराते थे। पर कई बार अपने बड़े चचा की बात न मान कर उनको उन्होंने अप्रसन्न कर दिया था। अन्धराज ने अपनी यह अप्रसन्नता प्रकट नहीं की; मन ही में रक्खी । इस तरह पन्द्रह वर्ष बीत गये। एक दिन धृतराष्ट्र और गाधारी को दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण आदि की प्रशंसा करते सुन कर महाबाहु भीमसेन चुप न रह सके। युधिष्ठिर और कुली के बिना जाने, पर और सब बन्धु-बान्धवों के सामने ही, वे उन लोगों का सुना कर अपनी भुजायें फड़का कर कहने लगे :- हमने इन्हीं दोनों भुजाओं के बल से पुत्र और भाइयों-समेत दुरात्मा दुर्योधन को यमलोक भेजा है। धृतराष्ट्र के पुत्रों का नाश करनेवाली ये हमारी भुजायें बनी हुई हैं और चन्दन चर्चित होकर शोभा पाती हैं। भीमसेन की तरह तरह की ऐसी ही कठोर बातें सुन कर बुद्धिमती गान्धारी ने तो बुरा न माना; क्योंकि उन्होंने सोचा कि सब काम काल के प्रभाव से होते हैं। पर कौरवपति धृतराष्ट्र बड़े दुखी हुए । वे सबको बुलाकर कहने लगे :- तुम लोगों को मालूम ही है कि कुरुवंश के नाश का कारण हमी हैं । पर आश्चर्य इस बात का है कि पन्द्रह वर्ष बीत जाने पर हमें अब अच्छी तरह ज्ञात हुआ है कि हमने कितना बड़ा पाप किया है। यह बात केवल गान्धारी ही जानती है कि इतने दिनों से चौबीस घंटे में सिर्फ एक ही बार शाम को हमने भोजन किया है। हमारे साथ नियम की रक्षा करने के बहाने वे भी मृगचर्म पहनती और भूमि पर सोती हैं। पर हमने यह वृत्तान्त अब तक इसलिए प्रकाशित नहीं किया कि शायद युधिष्ठिर को बुरा लगे। हमारे सौ पुत्र क्षत्रिय-धर्म के अनुसार प्राण छोड़ कर स्वर्गलोक गये हैं। अतएव उनके लिए अब हमें कुछ नहीं करना है। किन्तु अब हमें अपना परलोक सुधारने के लिए पुण्य-कर्म करना चाहिए । इमलिए हे युधिष्ठिर ! यदि तुम्हारी अनुमति हो तो हम इसी समय वल्कल पहन कर वन को जायँ । बेटा ! हमारी उम्र हो आई; इसलिए तुमको आशीर्वादपूर्वक राज्य देकर हम तपस्या करना चाहते हैं। युधिष्ठिर ने उत्तर दिया :- हे राजन् ! जो श्राप क्लेश उठावेंगे तो हमें यह राज्य कैसे अच्छा लगेगा ? हमको धिक्कार है ! हम राज्य के बड़े ही लोभी हैं । राज्य के काम में लिप्त रहने से हमसे भूल जरूर हुई । इसी से तो हम यह न जान सके कि श्राप भोजन न करने से इतने दुबले, और दुखी हैं। हाय ! श्रार तो हम पर विश्वास करते थे; फिर क्यों ऐसा धोखा दिया ? हे नरेन्द्र ! आप हमारे पिता और परम गुरु हैं। आपके वन चले जाने पर हम लोग राज्य में कैसे रहेंगे ? दुर्योधन पर हम लोगों को बिलकुल क्रोध नहीं । जो होनहार होता है वही होता है; इसी लिए उस समय इतने मनुष्यों का नाश हुश्रा। दुर्योधन की तरह हम लोग भी आपके पुत्र हैं। इसलिए यदि आप हम लोगों का त्याग करना चाहेंगे तो हम भी आपके साथ चलेंगे। अपने पुत्र युयुत्सु या और जिसको आप चाहें यहाँ का राजा बनाइए । हम तो आपके