पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३४८

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३१६ सचित्र महाभारत [दूसरा खण्ड हे युधिष्ठिर ! कुरुनन्दन धृतराष्ट्र अब वृद्ध और पुत्रहीन हैं । इस अवस्था में संसार के कष्ट ये नहीं सह सकते । यशस्विनी गान्धारी ने बड़ी दृढ़ता से पुत्रशोक को सहा है । इसलिए इन लोगों को वही काम करना चाहिए जो पुराने राजर्षि कर गये हैं। इस विषय में तुम्हें अवश्य ही अनुमति देनी चाहिए। महामुनि व्यास की बात सुन कर युधिष्ठिर ने कहा :- भगवन् ! आप और राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता और गुरु के समान हैं। इसलिए आप जो आज्ञा हमें देंगे हम तुरन्त ही उसका पालन करेंगे। तब व्यास ने फिर कहा :- हे भारत ! जब तुम्हारे पिता बने थे तब धृतराष्ट्र ने राज्य का सुख अच्छी तरह भोगा है और बहुत सा धन दान करके पुण्य कमाया है । हे राजन् ! तुमने भी राजा धृतराष्ट्र और यशस्विनी गान्धारी की खूब सेवा की है। तुम लोगों पर इनका ज़रा भी क्रोध नहीं। पर अब इनके तप करने का समय है। इसलिए इनका रोकना उचित नहीं । ___ व्यासदेव की यह बात धर्मराज युधिष्ठिर ने मान ली। तब वे वन चले गये। तदनन्तर युधिष्ठिर को प्रसन्न करने के लिए अपने घर जाकर धृतराष्ट्र और गान्धारी ने भोजन किया। इसके बाद वे वन जाने का उद्योग करने लगे। पहले तो धृतराष्ट्र ने नगर और कुरुजाङ्गल आदि अन्य स्थानों की चारों वर्गों की प्रजा को बुलाया। राजा की आज्ञा पात ही वे लोग प्रसन्नतापूर्वक राजभवन के चारों तरफ इक? हुए। तब अन्त:पुर से निकल कर धृतराष्ट्र उन लोगों से कहने लगे :- हे श्रेष्ठजन ! तुम लोगों का बहुत दिनों से कुरुकुल से सम्बन्ध है । तुम सब एक दूसरे के सदा हितैषी रहे हो । महर्षि व्यास और कुन्ती के पुत्र युधिष्ठिर की अनुमति से इस समय हम वन जाना चाहते हैं। इसलिए तुम लोग भी बिना पसोपेश के हमें अनुमति दो। हमारी प्रार्थना है कि तुम लोग जैसी प्रीति हमसे करते रहे हो वैसी ही बनाये रहो। युधिष्ठिर के राज्य में हमने बड़ा सुख पाया है। शायद दुर्योधन के राज्य में भी वैसा सुख हमें नहीं मिला । जो हो, एक तो हम जन्म के अन्धे हैं, दूसरे अब बृद्ध हुए; इसके सिवा हम पुत्र-पौत्र-हीन भी हैं । इसलिए वनवास छोड़ कर और कई कल्याणकारक उपाय हमारे लिए नहीं है । अतएव तुम लोग हमें वन जाने की अनुमति दो। अन्धे राजा की यह बात सुन कर प्रजाजनों के आँसू आ गये । वे लोग गद्गद स्वर से रोने लगे। कोई कुछ उत्तर न दे सका। तब धृतराष्ट्र फिर कहने लगे :- हे वत्सगण ! यह तुम अच्छी तरह जानते हो कि महाराज शान्तनु, भीष्म से रक्षा किये गये विचित्रवीर्य, और हमारे प्यारे भाई पाण्डु ने किस तरह राज्य किया था। जैसा राज्य ख़द हमने किया, वह चाहे अच्छा हो या बुरा, उसके लिए हमें क्षमा करना चाहिए । जब दुर्योधन ने निष्कंटक राज्य किया तब उन्होंने भी तुम्हारा कोई अपराध नहीं किया। इसके बाद उन्हीं की अनीति और हमारे अपराध से लाखों मनुष्यों का नाश हुआ। अब हम हाथ जोड़ कर कहते हैं कि हम पर क्रोध न करना । वृद्ध, पुत्रहीन, शोकातुर और पुराने राजों के वंश में उत्पन्न समझ कर हमें क्षमा करो। अब तुम लोगों से यही प्रार्थना है कि हमारे चंचल, लोभी और स्वेछाचारी पुत्रों के दुष्कर्मों को भूल कर तुम प्रसन्नतापूर्वक हमें वन जाने की अनुमति दो।