पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३५१

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दूसरा खण्ड ] परिणाम ३१९ माँ ! हमसे ऐसी निठुर बात कहना तुम्हें उचित नहीं । हमें तुम्ारा वन जाना कभी मंजूर न होगा। इसलिए हम पर प्रसन्न हो । पहले तो वृष्ण के द्वारा तुम्हीं ने लड़ने के लिए हमें उत्साहित किया था। अब जीतने पर हम लोगों को क्यों छोड़ी हो ? ___ पर धर्मगज के ये करुण-वाम्य सुन कर भी यशस्विनी कुत्ती ने न माना । वे पहले ही की तरह रोती हुई धृतराष्ट्र के पीछे पीछे चलने लगी । तब भीमसेन ने कहा :- ___ माता ! पुत्रों का जीता हुआ राज्य भोगने और राजवर्म प्राप्त करने का यही समय है। ऐसे अवसर में तुमारी बुद्धि क्यों इस तरह उलटी हो गई ? यदि हम लोगों को छोड़ देने ही को तुम्हारी इच्छा थी तो हमारे हाथ से पृथ्वी के वीरों का नाश क्यों कराया ? यदि वनवास ही करना था तो हम लोगों का वन से क्यों ले आई ? भीमसेन और अन्य पाण्डवों के बहुत विलाप करने पर भी जब कुन्ती ने वन जाने की इच्छा न त्यागी तब रोती हुई द्रौपदी और सुभद्रा के साथ पाण्डव लोग उनके संग संग चलने लगे। यह देख कर कुन्ती न कहा :- बेटा ! तुम लोग कपट-पूर्ण जुए में हार कर बड़े दुख से समय बिताते थे; इसी लिए मैंने तुम लोगों को लड़ने के लिए उत्तेजित किया था। तुम लोग महात्मा पाण्डु के पुत्र हो; इसलिए तुम्हारे यश या तेज का नाश होना बहुत अनुचित है। तुम इन्द्र के समान पराक्रमी हो; इसलिए शत्रु के वश में रहना तुम्ह शोभा नहीं देता। तुम धज्ञ हो; इसलिए वनवास करने की अपेक्षा राज्य करना ही तुम्रे लिए अच्छा है। विशप कर नकुल, सहदेव और सती द्रौपी का क्लेश देना बड़े ही अयाय की बात है । यही समझ कर मैंने कृष्ण के द्वाग तुम लोगो का उत्तेजित किया था। मैने यह काम तुम्हारे उच्च वंश के खयाल से तुम्हारा हित करने ही के लिए किया था; अपने सुख के लिए नहीं। मैंने अपने पति के राजत्वकाल मे बहुत सुख भोगा है । टब पुत्रो के जीते हुए राज्य का भोगने की मेरी इच्छा नहीं । जिस पवित्र लोक मे महामा पाण्डु है वहो जाने की इस समय मेरी बड़ी :छा है । इसलिए मैं निवासी अन्धगज और गान्धारी की सेवा कर के तपस्या द्वारा पापों का नाश करूँगी । तुम राजधानी को लौट कर सुखपूर्वक राज्य भोग करो। ईश्वर करे तुम लोगों की धर्म-बुद्धि बढ़े और मन उदार हो । ___महाभागा कुन्ती की ये बातें सुन कर पाण्डव लोग बड़े लज्जित हुए। अन्धराज को प्रणाम तथा प्रदक्षिणा करके द्रौपदी के साथ नगर का लौट आने के लिए वे तैयार हुए। तब धृतराष्ट्र ने गान्धारी और विदुर से कहा :- तुम युधिष्ठिर की माता देवी कुती को शीघ्र ही लौटा दो । पाण्डवों की माना इतने ऐश्वर्य और पुत्रों का छाड़ कर दर्गम वन का व्यर्थ कष्ट क्यों उठावें ? अपने गज्य में रह कर और दान व्रत श्रादि करके सहज ही में वे उत्तम तपस्या कर सकती हैं। उनकी सेवा से हम बड़े सन्तुष्ट हुए हैं। अब उनको लौट जाने की आज्ञा दो। धृतराष्ट्र की आज्ञा के अनुसार गा धाी ने कुनी से राजा की कही हुई बातें कह कर उनसे लौट जाने के लिए अनुरोध किया। पर कुनी ने किसी के भी कहने से वन जाने का संकल्प न छोड़ा। इम्से पाण्डव लोग अत्यन्त दु:खित और शोकातुर हुए । पर लाचारी थी। अन्त को वे स्त्रियों के साथ रथों पर सवार होकर दीन-भाव से नगर को लौट आये। राजा धृतराष्ट्र उस दिन बहुत दूर चल कर गंगा के किनारे ठहरे। वहाँ यज्ञ आदि करके रात को सब लोग कुशासनों पर साये । दूसरे दिन सबेरे गंगास्नान करके याज्ञिक प्रामणों की बनाई हुई वेी के ऊपर अग्नि में हवन किया। इसी तरह कई दिन बीत गये । हवन आदि क्रियायें हो चुकने पर वे