पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३६५

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महाप्रस्थान दूसरा खण्ड ] ३३३ जब धर्मराज देवलोक पहुँचे तब उनके पास आकर तपस्वी देवर्षि लोग उनसे प्रीतिपूर्वक मिले । पर महात्मा युधिष्ठिर उस समय भी शान्त और प्रसन्न न थे। वे उनसे कहने लगे :-- हे महापुरुषगण ! हमारे भाई नहीं देख पड़ते । जिस लोक को वे गये हों, चाहे वह भला हो चाहे बुरा, हम भी वहीं जाना चाहते हैं। तब इन्द्र ने कहा :- धर्मराज ! तुम्हारे समान सिद्धि पहले कोई राजा नहीं पा सका । तुम्हारे भाई इस स्थान के अधिकारी नहीं । तुम मनुष्य की माया छोड़ कर अपने कर्म से जीते हुए स्वर्गलोक के सुख-भोग करो। यह सुन कर युधिष्ठिर नम्रतापूर्वक बोले :- हे देवेश ! हमारी प्यारी द्रौपदी और परम प्रिय भाई जहाँ हों वहीं जाने की हमारी बड़ी इच्छा है । उन्हें छोड़ कर हम यहाँ नहीं रहना चाहते । बिना भाइयों के स्वर्ग में रहने से हमें कुछ भी सुख न होगा। इस तरह धर्मराज के बार बार विनती करने पर इन्द्र ने उन्हें भाइयों के पास जाने की आज्ञा दे दी और एक देवदूत को बुला कर कहा :- हे दूत ! तुम युधिष्ठिर को उनके आत्मीय जनों के पास शीघ्र ही ले जाकर उनसे भेंट कराओ। इन्द्र की आज्ञा पाते ही देवदूत युधिष्ठिर के आगे हुआ और उनको एक बड़े भयङ्कर रास्ते से ले चला । यह रास्ता बड़ा दुर्गम था। इसमें घोर अन्धकार छाया हुआ था। मांस और खून के कीचड़ तथा कीड़ों मकोड़ों से यह भरा हुआ था । जलती हुई आग और भयङ्कर मूर्ति के प्रेत चारों ओर दिखाई देते थे । हवा का झोंका आते ही हजारों दुखी मनुष्यों का आर्तनाद सुनाई पड़ता था। यह सब देख कर युधिष्ठिर को बड़ी चिन्ता हुई। इस दुर्गन्धमय स्थान में चलते चलते धर्मराज ने देवदूत से पूछा :--- महाशय ! ऐसा रास्ता हम लोगों को और कितनी दूर चलना पड़ेगा ? यह कौन स्थान है और हमारे भाई कहाँ रहते हैं ? यह सुन कर देवदूत ने मुँह फेरा और युधिष्ठिर के सामने होकर वह बोला :- राजन् । चलते समय देवताओं ने हमसे कहा था कि चलते चलते युधिठिपा जब थक जाये तब उन्हें लेकर लौट आना । इसलिए यदि आप थक गये हों तो चलिए हम लोग लौट चलें। उस स्थान की दुर्गन्ध से अत्यन्त दुखी होकर युधिष्ठिर वहां से लौट पड़े । उस समय कातर- कण्ठों से निकले हुए करुणापूर्ण वाक्य चारों ओर से युधिष्ठिर को सुनाई देने लगे :- हे धर्मपुत्र ! हम लोगों पर दया करके थोड़ी देर यहाँ ठहर जाव । तुम्हारे आने से यहाँ पवित्र वायु बहने लगी है। इससे हम लोगों का कष्ट दूर हो गया है । इसके सिवा बहुत दिनों बाद तुम्हारे दर्शन हुए हैं। इससे भी हमें बड़ा आनन्द हुआ है । अतएव कुछ देर ठहर कर हम लोगों को सुखी करो। ऐसे दीन वचन सुन कर परम दयालु युधिष्ठिर चक्कर में आ गये। उन्होंने उत्कण्ठित होकर पूछा :- __हे दुखी लोगो ! तुम कौन हो ? क्यों तुम ऐसे स्थान में रक्खे गये हो ?