पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/३७

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पहला खण्ड ] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों की जन्म-कथा में मैं अब तक कुछ नहीं कर सका । आज मुझे तुम्हारे जी का हाल मालूम हुआ। तुम्हारे इस दु:ख को दूर करने का अब मैं बहुत जल्द यत्न करूँगा। यह कह कर गजा कुन्ती के पास गये और बोले :.. हे पृथा ! देखा, इन्द्रासन प्राप्त करके भी इन्द्र की कामनायें पूरी नहीं हुई। अपनी कीर्ति को और भी बढ़ाने की इच्छा से उसे यज्ञ भी करना पड़ा। मुझे प्रसन्न रखने और वंश की रक्षा करने के लिए तुमने बहुत कुछ किया है। तथापि एक बात और करने के लिए तुमसे मैं कहना चाहता हूँ। तुम माद्री पर दया करके उसे भी एक पुत्र दिलाओ जिसमें तुम्हारी कृपा से वह भी पुत्रवती हो। इससे माद्री की भी इच्छा पूर्ण होगी, मुझे भी सुख होगा, और तुम्हारा भी नाम होगा। कुन्ती ने इस बात को मान लिया और मन्त्र का उच्चारण करके माद्री से कहा :--- तुम जिस देवता का चाहा म्मग्ण कगे। ऐसा करने से तुम्हें जरूर पुत्र मिलेगा। माद्री ने कछ देर तक सोच कर दोनों अश्विनीकुमारों का स्मरण किया। इन देवताओं की कृपा से माद्री के एक ही साथ परम रूपवान दो पुत्र हुए। उनमें से एक का नाम हुआ नकल, दुसरे का सहदेव। इसके कछ दिन पीछे माद्री की तरफ से फिर भी पाण्डु ने कन्ती से प्रार्थना की । कुन्ती बोली : महागज ! माद्री बड़ी धूत है। उसने दो देवताओं के जाड़े को बुला कर एक-दम ही दो पुत्र प्राप्त कर लिये । मुझे पहले नहीं मालूम था कि यह बात हो सकती है। यदि मैं जानती तो मैं भी वैसा ही करती । इस बात के न जानने में मेरी बड़ी हानि हुई है । माद्री के लिए मैं अब फिर मन्त्र उच्चारण नहीं कर सकती । इस विषय में आप मुझसे फिर कभी कुछ न कहें। लाचार, पाण्डु को यही पाँच पुत्र प्राप्त करके सन्तुष्ट होना पड़ा। देवताओं के दिये हुए ये पाँचों सुन्दर और सुलक्षण पुत्र मुनियां और उनकी स्त्रियों को बड़े प्यारे हुए । आश्रम में जितने मुनि और उनकी जितनी स्त्रियाँ थीं सब उन्हें बहुत चाहती थीं। इधर हस्तिनापुर में धृतराष्ट्र, पाण्डु से जुदा होने के कारण, राज्य का काम-काज बड़े दुःख से चलाने थे। पाण्डु के वन चल जाने के कुछ समय पीछे महर्षि वेदव्यास एक बार भूख-प्याम से व्याकल होकर राजा धतराष्ट्र के यहाँ आय । गान्धागने उनकी बड़ी सेवा-शुश्रपा की । इससे व्यासदेव बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने गान्धारी मे कहा, जो वर तुम चाहो माँगी। यह सुन कर गान्धारी को बड़ा आनन्द हुआ। उसने कहा : हे महर्षि ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो यह वर दीजिए कि मेरे पति के समान गुणवान् मेरे सौ पुत्र हों। व्यासदेव ने कहा---"तथास्तु'-तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। यह कह कर वे चले गये। यथासमय गान्धारी को गर्भ रहा पर गर्भ रहने के बाद दो वर्ष बीत गये; गान्धारी के सन्तान न हुई। गर्भ पेट का पेट ही में रहा। इसी बीच में पाण्डु के जेठे पुत्र युधिष्ठिर के जन्म लेने का समाचार हस्तिनापुर में पहुँचा । कुन्ती के पुत्र का जन्म पहले होने के कारण वही जेठा हुआ। और जेठे ही पुत्र को राज्य मिलता है; वही राज्य का अधिकारी होता है। यह सोच कर गान्धारी को अति दुःख हुआ। क्रोध में आकर उसने अपने पेट पर जोर से एक घुसा मारा। फल यह हुआ कि समय पूरा होने के पहले ही उसका गर्भ गिर पड़ा। उस समय गर्भजात सन्तान के सब अङ्ग न बन पाये थे। गर्भ मांस का एक पिण्ड मात्र था । फा०३