पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/४९

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पहला खण्ड ] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों का बालपन गुरु की आज्ञा से धनुष पर बाण रख कर अर्जुन एकटक निशाने की तरफ़ देखने लगे । तब द्रोण पहले की तरह अर्जुन से पूछने लगे : वत्स ! पेड़, पर रक्खी हुई चिड़िया, हम, और भाई सब तुम्हें देख पड़ते हैं न ? अर्जुन ने कहा--मुझे सिर्फ निशाना देख पड़ता है । न पेड़ देख पड़ता है, न आप देख पड़त हैं, न और कोई देख पड़ता है। तब प्रसन्न होकर द्रोण ने फिर पूछा :क्या तुम्हें पूरी चिड़िया देख पड़ रही है ? अर्जुन बोले मुझे चिड़िया का सिर देख पड़ता है, उसका और कोई अंग नहीं देख पड़ता। यह सुन कर द्रोण वहुत ही प्रसन्न हुए और बाल--अच्छा ता निशाने पर बाण छूटने दो। आज्ञा पाते ही अर्जुन ने बाण छोड़ा और सिर कटी हुई चिड़िया पृथ्वी पर आ गिरी । द्रोण ने अर्जुन का बड़े प्रेम से गल से लगा लिया। और एक दिन अपने सब शिष्यों को साथ लेकर द्रोणाचार्य गङ्गा-स्नान करने गये । आचार्य जल के भीतर गये ही थे कि एक मगर ने उन्हें आ पकड़ा । व यदि चाहत तो अपनी रक्षा आप ही कर सकते थे। परन्तु उन्होंने शिष्यों की परीक्षा लेने की ठानी। इसस बनावटी डर दिखा कर वे चिल्लाने और रक्षा के लिए शिष्यों को पुकारने लगे। गुरु को इस घोर विपदा में पड़े देख शिष्य लाग घबरा गये । किसी की समझ में न आया कि क्या करना चाहिए । सब चित्र लिखे से तट पर खड़े रह गये। एक-मात्र अर्जुन नहीं घबराये । उन्होंने तट पर खड़े ही खड़े मगर के कुठौर में पाँच बाण ऐसे मारे कि वह व्याकुल हो उठा और आचार्य को छोड़कर न जाने कहाँ भग गया। विपत्ति आने पर धीरज न छोड़ कर उससे बचने की युक्ति निकालन और बाण चलाने में अर्जुन का इतना प्रवीण देख आचार्य द्रोण का परमानन्द हुआ। उन्होंने समझा कि राजा द्रुपद को परास्त करके अर्जुन हमारी मनोवाञ्छा ज़रूर पूर्ण करेगा। यह सोच कर उन्होंने प्रेम-भरे शब्दों में अर्जुन से अपनी प्रसन्नता प्रकट की और कहा : हे महाबाहु ! तुमने हमें बहुत ही प्रसन्न किया है। इससे हम तुम्ह ब्रह्मशिरा नाम का एक अस्त्र देंग। इस अस्त्र की मार कभी खाली नहीं जाती । उसे कोई नहीं रोक सकता। परन्तु तुमको हम पहले ही से सावधान किये देते हैं कि इस अस्त्र को मनुष्य पर कभी न छोड़ना । मनुष्य पर इसे छोड़ने से इसका तेज सहा न जा सकेगा। इसके तंज की प्रचण्डता के कारण चारों और आग लग जायगी। सब दिशायें जलने लगेंगी। यदि मनुष्य छोड़ कर और कोई तुम पर वार करें तो उस पर तुम यह अस्त्र चलाना । चलाते ही तुम्हारे शत्रु का संहार हो जायगा। अर्जुन ने हाथ जोड़ और सिर झुका कर इस दिव्य अस्त्र को ग्रहण किया और अपने को बहुत बहुत कृताथे माना । इस समय द्रोणाचार्य ने समझा कि सब शिष्यों ने यथाशक्ति विद्या पढ़ ली। जिसमें जितनी शक्ति थी उसने उतनी शिक्षा प्राप्त कर ली । अब अधिक दिनों तक शिक्षा जारी रखने की जरूरत नहीं। यह सोच कर द्रोण एक दिन राज-सभा में पधारे और भीष्म, व्यास, विदुर, कृप इत्यादि के सामने धृतराष्ट्र से बोले : . महाराज ! राजकुमारों की विद्या समाप्त हो गई। अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों का चलाना उन्होंने विधिपूर्वक सीख लिया । यदि अाज्ञा हो तो वे अपनी अपनी विद्या का परिचय आपको दें। द्रोण के वचन सुन कर धृतराष्ट्र बहुत सन्तुष्ट हुए। वे बोले :हे ब्राह्मणों में श्रेष्ठ, आचार्य ! आपने हमारा बहुत बड़ा काम किया। बतलाइए किस तरह की रङ्गभूमि में राजकुमारों की शिक्षा की अच्छी तरह परीक्षा हो सकेगी। आपकी जैसी आज्ञा होगी वैसा ही