पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/५५

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जाभि पहली खण्ड ] पाण्डवों और धृतराष्ट्र के पुत्रों का बालपन गुरु की आज्ञा पाकर शिष्य लोग बहुत जल्द अपने अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर हस्तिनापुर से चले और पाञ्चाल देश पर धावा किया। अपने सब भाइयों और कर्ण को साथ लेकर दुर्योधन ने सबके आगे प्रस्थान किया। उन्होंने चाहा कि मैं ही पहले पहुँच कर द्रुपद को पकड़ लाऊँ। यह देख कर अर्जुन ने द्रोण से सलाह की । द्रोण के कहने से वे अपने भाइयों सहित कुछ पीछे रह गये। द्रपद ने जब सुना कि मेरे देश पर चढ़ाई हो रही है और द्रोण के शिष्य धावा करते चले आ रहे हैं तब वे अपनी सेना लेकर झट राजधानी के बाहर निकले। उन्होंने धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन आदि के साथ घोर युद्ध किया। द्रुपद की राजधानी के पुरवासी भी मूसल और लाठियाँ ले लेकर दुर्योधन के साथियों पर टूट पड़े। इससे धृतराष्ट्र के पुत्र जो पहले ही पाञ्चाल देश में पहुँच गये थे बे-तरह घबरा उठे। द्रपद ने उनकी बुरी दशा कर डाली। इसी समय भीमसेन लड़ाई के मैदान में आये। उनके साथ उनके चारों भाई भी थे। भीम ने अपनी गदा की चोट से कितने ही हाथी, घोड़े, रथ और पैदल योद्धाओं को मार गिराया। इसके अनन्तर अर्जुन ने धनुर्बाण लेकर इतने बाण छोड़े कि द्रुपद की फौज पर वे बादलों की तरह सब तरफ़ छा गये। जिधर देखिए उधर बाण ही बाण देख पड़ने लगे। ___ अर्जुन ने क्रम क्रम से द्रुपद के एक एक सेनापति का हरा दिया। फिर जो लोग उनकी मदद कर रहे थे उनके शरीर की रक्षा कर रहे थे उनको मार गिराया। अन्त में वे दपद दोनों में घोर युद्ध होने लगा। द्रोण के परम-श्रेष्ठ शिष्य अर्जुन के सामने द्रपद की एक न चली। वे अपने को बहुत देर तक न बचा सके। थोड़ी ही देर में अर्जुन ने उन्हें पीड़ित कर दिया। उन्होंने द्रपद के रथ की पताका काट कर जमीन पर गिरा दी। उनके धनुष के भी दो टुकड़े कर डाले। इसके अनन्तर बड़े ही पैन पाँच बाण छोड़ कर उन्होंने द्रपद के रथ के घोड़ा और सारथि को मार गिराया। फिर उन्होंने अपना धनुर्बाण रख दिया और तलवार हाथ में ले ली। तलवार लेकर वे अपने रथ से उतर पड़े और उछल कर एक पल में द्रुपद के रथ पर जा पहुँचे। वहाँ उन्होंने द्रुपद को पकड़ कर कैद कर लिया। द्रुपद को कैद हो गया देख कौरव लोग उनकी बची हुई सेना और पाञ्चाल नगरी का नाश करने लगे। परन्तु अर्जुन ने उन्हें वैसा करने से मना किया। उन्होंने कहा, व्यर्थ हत्या करने से क्या लाभ ? उनको इस तरह मना करके अर्जुन ने भीमसेन से कहा : भाई ! हमें याद रखना चाहिए कि राजा द्रुपद अपने आत्मीय हैं। वे कोई गैर आदमी नहीं; सब तरह अपने ही हैं। हमने प्राचार्य से सिर्फ इतनी ही प्रतिज्ञा की है कि हम द्रपदराज को गुरुदक्षिणा की तरह आपके पास ल आवेंगे। इससे आइए इन्हें आचार्य के पास ले चलें। द्रुपदराज की सेना ने हमारा कोई अपराध नहीं किया। वह बिलकुल निरपराध है। उसे मारना अन्याय है। उसे छोड़ देना ही हमारा धर्म है। इसके अनन्तर सबने द्रपद को गुरु द्रोण के सामने जा खड़ा किया और कहा-आचार्य । गुरुदक्षिणा हाजिर है। द्रपद का सारा घमण्ड चूर हो गया। उनका सारा राजमद जाता रहा। उन्हें द्रोण के सामने कैदी बन कर जाना पड़ा। द्रुपद की यह दुर्गति देख द्रोणाचार्य को अपना वह अपमान याद हो पाया जा द्रुपद ने किया था। आचार्य बोले : हे द्रुपदराज ! हमारी आज्ञा से तुम्हारी राजधानी बरबाद कर डाली गई। खुद तुम्हारे भी प्राण इस समय हमारे ही हाथ में हैं। तथापि यदि तुम्हारी कोई वासना हो-यदि तुम हमसे कुछ चाहते हो तो कहो। हम उसे पूर्ण करेंगे। क्योंकि तुम हमारे लड़कपन के साथी हो। उसके निहोरे हम तुम पर अब भी दया करने को तैयार हैं। द्रोण के मुँह से ये वचन सुन कर द्रुपद का सिर नीचा हो गया। मारे लज्जा के एक शब्द भी उनके