पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/६०

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YO सचित्र महाभारत [पहला खण्ड पापात्मा पुरोचन ने दुर्योधन की बात मान ली। उसी क्षण वह एक तेज़ रथ पर सवार होकर वारणावत् पहुँचा और लाख का घर बनवाना प्रारम्भ कर दिया। इसके अनन्तर अच्छा मुहूर्त देख कर वारणावत् जाने के लिए पाण्डव तैयार हुए। उनके लिए अच्छे अच्छे घोड़े जोत कर एक रथ लाया गया । पाण्डवों के मन में सन्देह तो हो ही गया था; पर उन्होंने कुछ कहा नहीं । चलते समय गुरुजनों और ब्राह्मणों को प्रणाम करके उनका आशीर्वाद लिया। फिर वे बराबरवालों को गले से लगा कर मिले। बालकों ने उनके पैर छुवे। अन्त में सब माताओं की प्रदक्षिणा करके उनसे बिदा माँगी। प्रजाजन और पुरवासियों से प्रीतिपूर्वक बातें की। तब रथ पर सवार होकर हस्तिनापुर से उन्होंने प्रस्थान किया। पाण्डवों को हस्तिनापुर से इस तरह अचानक जाते देख लोगों के मन में सन्देह हो आया। वे सोचने लगे कि क्या कारण है जो पाण्डव अकस्मात् वारणावत् भेजे जा रहे हैं। विदुर आदि कितने ही कुरुवंश के सज्जन और कितने ही भक्त पुरवासी पाण्डवों के साथ जाने को तैयार हुए। उनमें से कोई कोई ढीठ और साहसी ब्राह्मण मनमानी जली कटी बातें सुनाने लगे : जब तक महाराज पाण्डु जीने रह सबके साथ उन्होंने न्याय और दया का व्यवहार किया। उनके पीछे उनका राज्य उनके जेठे पुत्र युधिष्ठिर को मिलना चाहिए था। सा तो दूर रहा, उनके उत्तगधिकारियों के साथ उलटा अन्याय हो रहा है। इस निष्ठुरता और निर्दयता का कारण क्या ? कुछ भी हो, जहाँ युधिष्ठिर रहेंगे हम लोग भी घर-द्वार छोड़ कर दल-बल सहित वहीं जाकर उनके अधीन रहेंगे। इस तरह की बातों को युधिष्ठिर ने अच्छा नहीं समझा। प्रजा को धृतराष्ट्र और उनके पुत्रों के खिलाफ़ राय देते देख उन्होंने ग्थ खड़ा कर दिया और बोले : हे प्रजाजन ! राजा धृतराष्ट्र हमारे पिता के तुल्य हैं। उनका मान रखना हमारी परम धर्म है। उनकी आज्ञा पालन करना हम अपना कर्तव्य खमझते हैं। इससे तुम सब लोग हमें आशीर्वाद देकर और हमारी मङ्गल-कामना करके अपने अपने घर लौट जाव । यदि कभी काम करने का समय आवे, और तुम्हारी मदद दरकार हो, तो उस समय हमारे हितचिन्तन का यन करना। अभी हमारे साथ चलने की ज़रूरत नहीं। यह सुन कर प्रजाजनों ने पाण्डवों की प्रदक्षिणा की और उन्हें आशीर्वाद देकर घर लौट आये । जब सब लोग चले गये तब विदुर युधिष्ठिर से विदा होने लगे । उनको दुर्योधन के पापजाल की बात मालूम हो गई थी। इससे युधिष्ठिर को उन्होंने सचेत करना चाहा। म्लेच्छ-भाषा में इशारे के तौर पर उन्होंने युधिष्ठिर को कुछ उपदेश दिया। वे बोले : बुद्धिमान् आदमी सदा ही विपद से बचने के उपाय निकाल लिया करते हैं। शत्र लोग जाल, फरेब और चालाकी के दाँव पेंच खेला ही करते हैं। वही उनके लिए अस्त्र-शस्त्र का काम देते हैं। ऐसे शस्त्र यद्यपि लोहे के नहीं होते तथापि शरीर उनसे ज़रूर छिद जाता है। फूस के भीतर कन्दरा खोद कर रहने से फूस को जलानेवाली आग कुछ नहीं कर सकती। उससे अादमी नहीं जल सकता। ऊपर ही ऊपर वह फूस को जला कर बुझ जाती है। पाँचों इन्द्रियाँ जिनके वश में हैं उन्हीं की जीत होती है। राह न मालूम हो तो आकाश में नक्षत्र देख कर दिशाओं का ज्ञान कर लेना चाहिए-रात को तारे देख कर जान लेना चाहिए कि हमें किधर जाना है। __यह उपदेश सुन कर कुछ देर तक युधिष्ठिर ने मन ही मन विचार किया। फिर उन्होंने उसी म्लेच्छ-भाषा में सिर्फ यह कह कर उत्तर दिया कि-'मैं समझ गया । विदुर भी यधिष्ठिर को यह उपदेश देकर उनसे बिदा हुए। जब सब चले गये तब कुन्ती ने युधिष्ठिर से पूछा :