पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/८८

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सचित्र महाभारत पहला खण्ड अर्जुन के इस बुरे व्यवहार से यादव-वीरों का बड़ा क्रोध आया। उनकी आँखें लाल हो गई। उन्होंने उठ कर सारथियां का रथ मजाने की आज्ञा दी। इस समय नशे में चूर, नील वस्त्र पहने हुए बलदेव सहसा बोले : हे वीरगण ! तुम क्या कहने हो ? कृष्ण स्थिर-चित्त से चुपचाप खड़े हैं; उनकी आज्ञा के बिना इतना क्रोध करना और गरजना व्यर्थ है। यह बात सुन कर सब लोग चुप हो गये । नव बलदेव कृष्ण से कहने लगे : . हे भाई ! देखा, मभी तुम्हारी बात सुनने का गस्ता देख रहे हैं । तुम चुप क्यों हो ? तुम्हारे ही कहने से हमने इस कुमवंश के पापी अर्जुन का इतना आदर किया था। उसी का यह फल है जो आज इस नीच के द्वारा इस तरह अपमानित हुए हैं। उसका यह व्यवहार हमारे सिर पर लात माग्ने क तुल्य है । हे गोविन्द ! इस क्या हम चुपचाप सहगे ? कहो तो हम अकेले ही पृथ्वी भर के कौरवों को मार इसका बदला ल लें। अन्य यादवों ने भी बादलों की नरह गरज कर बलदेव की इस बात का समर्थन किया। तब कृष्ण, सबको शान्त करके, धीरे धीरे युक्ति से भरी हुई बातें कहने लगे : हे आर्य ! ह यादव ! अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं किया; किन्तु उलटा हमारे सम्मान की रक्षा की है। उन्हान हमका लालची नहीं समझा; इसलिए धन के द्वारा सुभद्रा को पाने की चेष्टा उन्होंने नहीं की। यह समझ कर कि स्वयंवर का फल न जाने क्या हो, उन्होंने उसकी परवा नहीं की । क्षत्रिय लोग माता-पिता की आज्ञा लेना वीरों का काम नहीं समझते । इसलिए उन्होंने सुभद्रा का हरण करना ही सबसे अच्छा समझा। यह हमारे भी कुल के योग्य हुआ है। अर्जुन को मामूली आदमी न समझना । उनकी उन्नति से भरतकुल की शाभा है । इसलिए दुख का कोई कारण नहीं है। हमारी समझ में शीघ्र ही अर्जुन के पास जाकर उनका शिष्टाचार से लौटा लाना उचित है । यदि उन तक हमारे पहुँचने के पहल ही में अपने नगर पहुंच जायँग ता हम लोगों के लिए यह बड़ी बदनामी की बात होगी। __ कृष्ण की बानो से यादवों का क्रोध जाता रहा। उन्होंने उनका उपदेश मान लिया और अर्जुन तथा सुभद्रा का लोटा कर द्वारका में यथारीति उनका विवाह कर दिया । इसके बाद अर्जुन एक वर्ष तक वहाँ रहे। __फिर पुष्करतीर्थ में बाकी सब समय बिता कर वनवास के बारह वर्ष पूरे हो जाने पर सुभद्रा को लेकर अजुन खाण्डवप्रस्थ लाट । वहाँ पहले वे गजा के पास गये । फिर ब्राह्मणों की पूजा की। बदनन्तर जल्दी से द्रौपदी के पास पहुँच । किन्तु द्रौपदी ने स्त्रियों के स्वभाव के अनुसार बनावटी क्रोध दिखा कर कहा : जहाँ सुभद्रा हो वहीं जाइए । इसमें सन्दह नहीं कि यदि भारी चीज अच्छी तरह बाँध भी दी जाय तो भी उसका बन्धन धीरे धीरे ढीला पड़ जाता है। द्रौपदी ने ऐसी ही तरह तरह की हँसी करना प्रारम्भ किया । अर्जुन ने उन्हें शान्त करने की चेष्टा की और बार बार उनसे क्षमा माँगी। अन्त में उन्होंने सुभद्रा का ग्वालिन के वेश में अन्त:पुर भेजा। उस वेश में सुभद्रा और भी सुन्दर मालूम होने लगी। ग्वालिन का रूप बनाये ही वह घर गई और कुन्ती के चरण छुए। कुन्ती ने प्रसन्नमन से उस सर्वांगसुन्दरी का माथा सूंघा और जी भर कर आशीर्वाद दिया। सुभद्रा वहाँ से द्रौपदी के यहाँ गई और प्रणाम करके बाली : प्रार्थे ! आज से मैं तुम्हारी दासी हुई। तब द्रौपदी कुछ शान्त हुई और यह कह कर उसे गले से लगाया कि तुम्हारे पति का वैरी न रहे !