पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/९२

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सचित्र महाभारत [पहला खण्ड ६–पाण्डवों का सबसे बड़ा राजा होना कृष्ण और अर्जुन ने, यमुना-तीर से नगर में लौट कर, खाण्डवदाह का सब हाल युधिष्ठिर से कह सुनाया। मय दानव ने जो सभा बनाना स्वीकार किया था उसकी भी सूचना उन्होंने दी। इसके सिवा और जितनी घटनायें हुई थीं वे भी युधिष्ठिर को सुनाई। उधर मय दानव पूर्वोत्तर दिशा की ओर रवाना हुआ और कैलास के उत्तरी भाग में, मैनाक पर्वत के पास, दानवों के राज्य में एक बड़े पर्वत पर पहुँचा। उसके पास ही बिन्द नाम के एक सरोवर के निकट पूर्वकाल में दानवों ने एक बड़ा भाग यज्ञ किया था। उसके लिए बनाये गये सभा-मण्डप का आश्चर्य-जनक सामान वहाँ रक्खा था। वहाँ से मनमानी चीजें लेकर मय ग्याण्डवप्रस्थ पहुँचा और युधिष्ठिर से मिला । युधिष्ठिर ने उसका अच्छा सत्कार किया। एक अच्छे दिन सभाभूमि का विस्तार पाँच हजार हाथ नाप कर उस पर उसने कृष्ण के अभिप्राय के अनुसार कुछ देवताओं, कुछ मनुष्यों, और कुछ दैत्यों के ढंग का, सुनहला, खूब ऊँचा, वृक्षों के समान खम्भोंवाला और मणियों से जड़ा हुआ एक अद्भुत सभा- मण्डप बनाना प्रारम्भ किया। धीरे धीरे नाना प्रकार के स्फटिक मणि और माणिक्यों से सजी हुई सभा-मण्डप की छत, आँगन और दीवारें अपूर्व शोभा को धारण करने लगीं । सभा के बीचों बीच स्फटिक की सीढ़ियोंदार और रत्नों से जड़ी हुई वेदिका से शोभित एक स्वच्छ जल का सरोवर बनाया गया। मंडप के चारों ओर की भूमि कमलों से परिपूर्ण सरोवरों, छायादार पेड़ों की कतारों और सुगन्धित फूलों की वाटिकाओं से सजाई गई । जल और थल के फूलों की सुगन्ध से मिली हुई वायु से सभा खूब सुगन्धित हो उठी। खाण्डवप्रस्थ में कुछ दिन बड़े सुख से बिता कर कृष्ण ने, पिता के दर्शनों के लिए बड़े उत्सुक होकर, घर जाने की इच्छा प्रकट की। अपनी बुआ कुन्ती और युधिष्ठिर की चरण-वन्दना करके उन्होंने घर जाने की आज्ञा प्राप्त की। फिर अपनी बहन सुभद्रा को तरह तरह की उपदेश-पूर्ण बातें सुना कर उन्होंने धीरज दिया और सुभद्रा ने माता तथा स्वजनों के लिए जो सन्देशा कहा उसे कह देने का भार अपने ऊपर लिया। इसके बाद उन्होंने स्नान करके अलङ्कार आदि पहने और पूजा कर चुकने पर चलने के लिए तैयार होकर घर से बाहर निकले । वहाँ स्वस्ति-पाठ करनेवाल ब्राह्मणों ने उनका अभिनन्दन किया- उन्हें नाना प्रकार के आशीर्वाद दिये । कृपण अपन गाड के चिह्नवाले रथ पर सवार हए। यधिष्ठिर और अर्जुन भी बड़े प्रेम से उनके साथ बैठे । युधिष्ठिर ने, दारुक सारथि को अलग बिठा कर, घोड़ों की रास खुद अपने हाथ में ली। बाकी पाण्डव लोग उनके पीछे पीछे रथ पर चले। इस तरह दो कोस जाने पर कृष्ण ने युधिष्ठिर के चरणों पर शीश रख कर उनसे लौट जाने के लिए कहा। तब युधिष्ठिर ने पैरों पर पड़े हुए कृष्ण को उठा कर उन्हें द्वारका जाने की अनुमति दी। अर्जुन और भीम ने आलिङ्गन तथा नकुल और सहदेव ने प्रणाम करके उनको बिदा किया। कृष्ण के चलने पर पाण्डव लोग उस समय तक उनके वायु की तरह तेज़ चलनेवाले रथ की ओर एकटक देखते रहे जिस समय तक रथ उनकी निगाह के सामने रहा । उन लोगों का मन कृष्ण ही के साथ गया। शरीर मात्र वहाँ रह गया। कुछ देर बाद, कृष्ण का रथ अदृश्य हो जाने पर, कृष्ण की याद और उनके सम्बन्ध की प्रीति से भरी हुई बातें करते हुए वे अपने घर लौटे।