पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/९३

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पहला खण्ड] पाण्डवों का सबसे बड़ा गजा होना इधर चौदह महीने तक सभा बनने का काम बराबर जारी रहा। अन्त में मय दानव युधिष्ठिर को सभा बन जाने की खबर दी। इससे वे बड़े प्रसन्न हुए । उन्होंने अनेक देशों से आये हुए ब्राह्मणों को घी-दूध से बनी हुई चीजें, फल, मूल, मृगमांस आदि भोजन, और वस्त्र-माला आदि से तृप्त करके सभा में प्रवेश किया। वहाँ मंगल-पाठ की ध्वनि श्राकाश तक गूंजने लगी। युधिष्ठिर के मन में भक्ति- भाव का वेग प्रबल हो उठा। उन्होंने गीत, वाद्य और फूलों के द्वारा देवताओं की पूजा और स्थापना की। इसके बाद आये हुए लोगों के द्वारा पूजित होकर भाइयों के माथ युधिष्ठिर उस जी लुभानवाली सभाभूमि में घूमने लगे । घूमघाम कर मण्डप के बीचोंबीच सिंहासन पर वे बैठे। इसी समय कुछ तेजस्वी ऋषियों के साथ देवर्षि नारद श्रा पहुँचे। पहले तो उन श्रेष्ठ ऋषियों ने तरह तरह के किस्से- कहानियों और प्रश्नों के बहाने युधिष्ठिर को गज-धर्म-सम्बन्धी नाना प्रकार के सार-गर्भित उपदेश दिये। फिर सभा की मनोहरता से प्रसन्न होकर वे बोले :---- . महाराज ! मणियों से जड़ी हुई तुम्हारी इस सभा के समान दूसरी ममा मनुष्यलोक में न हमने और कहीं देखी और न सुनी । यह सिर्फ देवताओं की सभाओं के साथ तुलना के योग्य है। ___यह कह कर सभा में बैठे हुए लोगों का कौतृहल दूर करने के लिए, तीनों लोकों में घूमनेवाले, वर्णन करने में चतुर, महामुनि नारद देवलोक की तरह तरह की सभाओं का हाल कहने लगे। ___यम की सभा के राजा लोगों का, वरुण देव की सभा के नाग और दैत्यकुल का, कुबेर की मभा में विहार करनेवाले यक्ष, राक्षस, गन्धर्व और अप्सराओं का, तथा ब्रह्मा की सभा के महर्षि और देवताओं का वर्णन करके, अन्त में, नारद ने सुरलोक के स्वामी इन्द्र की सभा में रहनेवाले पुण्यात्मा गजा हरिश्चन्द्र का हाल कहा। उनकी बात समाप्त होने पर युधिष्ठिर ने पूछा :- हे मुनिवर ! राजा हरिश्चन्द्र ने ऐसा कौन सा पुण्यकर्म और तपश्चर्या की थी जिससे उन्होंने इन्द्र की बराबरी का दजो पाया। देवर्षि नारद ने कहा :- महाराज ! सातों द्वापों को जीत कर उन्होंने अन्त में राजराजेश्वरों ही के करने योग्य राजसूय नामक यज्ञ किया था । हे धर्मराज ! जो चारों दिशाओं के गजाओं को अपने वश में करके इस बड़े यज्ञ को करता है वही इन्द्र के पद को पा सकता है। यह कह कर नारद ने बिदा माँगी और चल दिया। राजसूय यज्ञ की महिमा सुन कर युधिष्ठिर ने ठंढी साँस ली। राजा हरिश्चन्द्र के आश्चर्यजनक फल पाने की बात वे जितनी ही अधिक सोचने लगे उतनी ही अधिक इस यज्ञ के करने की इच्छा उनके मन में बलवती होने लगी। इसके लिए पहले ना उन्होंने बहुत ही अच्छी तरह राज्य करके प्रजा को खूब प्रसन्न किया। युधिष्ठिर के धर्माचरण, भीम के पालन-पोषण, अर्जुन के शत्रु-नाश, नकुल की नम्रता और सहदेव के धर्मोपदेश से सबकी व्यथा, भय, रोग और चिन्ता आदि दूर हो गई। शास्त्र के अनुसार कर लेने और धर्म के अनुसार राज्यशासन करने से सारी प्रजा सुखी हो गई । धन-जन की कोई शिकायत बाक़ी न रही। पाण्डवों के शील-स्वभाव और अच्छे कामों से प्रसन्न होकर जीते हुए राजा लोगों ने बिना सिर हिलाये कर देकर पूरे तौर पर उनकी अधीनता स्वीकार की। धीरे धीरे युधिष्ठिर ने जब अवस्था अनुकूल समझी तब वे मन्त्रियों और भाइयों से राज- सूय यज्ञ की बार बार चर्चा करने लगे। फा०१०