पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/९५

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पहला खण्ड ] पाण्डवों का सबसे बड़ा राजा होना के पराक्रम की खबर नहीं दी थी। यदुवीरों के साथ जब तुम्हें भी भागना पड़ा तब हम उसको कैसे जीत सकते हैं ? और साम्राज्य पाने के लोभ से स्वार्थ के वशीभूत होकर भीम और अर्जुन को हम उस अद्भुत बलवान्, सब तरह की सहायतावाले, दुरात्मा के साथ युद्ध करने कैसे भेजें। जो हो, हम सब कुछ तुम्हीं पर छोड़ते हैं । इसलिए तुम्हीं कहो, अब क्या करना चाहिए ? यह सुन कर भीम बोले :- इसमें सन्देह नहीं कि कमजोर और हाथ पर हाथ रख कर बैठे रहनवाले मनुष्य के लिए कोई उपाय नहीं है। पर हाँ, कमजोर आदमी कौशल और उत्साह से अपने से अधिक बली को जरूर हरा सकता है । यह निश्चय समझिए कि हमारा बल और अर्जुन की अस्त्र-शिक्षा, कृष्ण की बुद्धि की सहायता पाकर, सहज ही में सब काम सिद्ध कर सकती है। अर्जुन बाले :-हे आर्य ! वीरता, यश, बल और अपना पक्ष लेनेवाल योग्य पुरुष बड़ी कठिनता से मिलते हैं। पर ईश्वर की कृपा से ये सब हमें प्राप्त हैं। इस समय हम इन साधनों को क्यों व्यर्थ जाने दें। यदि प्रारण-नाश होने के डर से यद से जी चराना हो तो शान्तभाव से वनवास करना ही अच्छा है। शत्रु को जीत कर अपनी बढ़ती करना ही क्षत्रियों का सच्चा धर्म है। कृष्ण बोले : हे धर्मनन्दन ! अर्जुन ने वही बात कही जो उन्हें कहनी चाहिए । उनका कहना यथार्थ है । चाहे दिन हो चाहे रात, मृत्यु कभी न कभी ज़रूर ही आवेगी। युद्ध से दूर रह कर काई अमर हो गया हो, यह तो हमने कभी सुना नहीं । यदि दोनों पक्षवालों का बल बराबर है तो जो चतुराई से काम लेता है वही जीतता है। हम यह तो कहते नहीं कि जरासन्ध से रीति के अनुसार युद्ध किया जाय । यदि हम अपने छिद्र छिपा कर उसके छिद्रों का सहारा ले सकें तो निश्चय ही हमारी जीत हांगी। और यदि हम लोग हार भी जायँ तो भी हम लोगों को स्वर्ग की प्राप्ति होगी, क्योंकि हमाग उद्देश अच्छा है। कुछ देर साच कर बुद्धिमान् कृष्ण फिर कहने लगे :- देखिए महाराज ! हम नीति जानने हैं, भीम, बलवान हैं, और अर्जुन अस्त्र-विद्या में निपुण हैं। हम लोग यदि छिपे छिपं जरासन्ध के घर में घुस कर उससे युद्र करने को कहें तो वह निश्चय ही बल के नशे में चूर होकर भीमसेन के साथ मल्लयुद्ध करने पर राजी हो जायगा। उस समय हम लोग भीम की रक्षा करेंगे और अपने उपदेश द्वारा उन्हें मदद पहुँचायेंगे। इस तरकीब से जरासन्ध के साथ मल्लयुद्ध करने में भीम निश्चय ही जीतेंगे। इसलिए अधिक द्विविधा न कीजिए; विश्वासपूर्वक भीम और अर्जुन को हमारे साथ कर दीजिए। तब युधिष्ठिर को धीरज हुआ। उन्होंने कहा :- हे मधुसूदन ! तुम्हें हमसे अब पूछ पाछ की जरूरत नहीं। तुम अपने को पाण्डवों का नायक समझा । हम सब तुम्हारे आश्रित हैं । जो जी में आवे करो। कृष्ण, युधिष्ठिर की इस श्राज्ञा के अनुसार, भीम और अर्जुन के साथ, स्नातक ब्राह्मणों के समान कपड़े पहन कर, मगध देश की ओर चले । तीनों वीरों को जाने देख सबने मन ही मन निश्चय किया कि अबकी बार जरासन्ध मारा जायगा। कुरु और कुरुजाङ्गल देशों के बाद और बहुत से देश, नद-नदी पार करके अन्त में तीनों बन्धु कुण्ड, तालाब और वृक्षों से युक्त गोरक्ष पर्वत पर पहुँचे । वहाँ से उन्हें सामने फैली हुई मगध की राजधानी दिखाई पड़ी। कृष्ण बोले :-हे अर्जुन ! यह देखा सुन्दर रमणीक राजभवनों से सजा हुआ मगध-राज्य देख पड़ता है। इन पहाड़ों से घिरे हुए देश में रह कर इतने दिनों तक जरासन्ध ने राजों पर मनमाना