पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/९७

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पहला खण्ड ] पाण्डवों का सबसे बड़ा राजा होना तैयार हो तब सभी क्षत्रिय तुम्हारे वैरी हैं। तुम अपने को क्षत्रिय-वंश में सबसे बढ़कर बलवान् समझते हो, यह तुम्हारी भूल है । राजा युधिष्ठिर ने तुम्हारे इस भ्रम को दूर करने के लिए हमें भेजा है । इस समय या तो अपने कैद किये हुए गजों को छोड़ कर कुरुराज युधिष्ठिर की अधीनता स्वीकार करो या हमसे युद्ध करो। जरासन्ध ने कहा :-दम बिना जीते किसी राजा को नहीं लाये । इसलिए उन पर मनमाना व्यवहार करने का हमें अधिकार है। तुम चाहे जिस राजा के भेजे हो, हम तुमसे बिलकुल नहीं डग्ते । इसलिग, चाहे अलग अलग चाहे एक ही साथ, हम तुम तीनों से युद्ध करने को तैयार है। तब यदुवंश-श्रेष्ठ कृष्ण बोले :- हे राजन् ! हम अन्याययुद्ध नहीं करना चाहतं । तुम तीन जनों में किसके माथ युद्ध करना चाहतं हो, बतलाओ ? जरासन्ध ने भीमसेन ही को प्रधान समझा; इसलिए उन्हीं को युद्ध के लिए चुना । इसके बाद, युद्ध की खबर फैल जाने से, पुरोहित मङ्गल-कारक वस्तु और घाव लगने से पैदा हुई बेहोशी दूर करनेवाला बाजूवन्द और ओषधियाँ लेकर वहाँ पहुँचा। ब्राह्मण का स्वस्तिपाठ समाप्त होते ही जरासन्ध ने मुकुट उतार कर कवच धारण किया। भीमसेन भी, कृष्ण से एकान्त में बातें करके, युद्ध के लिए तैयार हुए। इसके बाद दोनों वीर मल्ल-युद्ध करने लगे। पहले उन्होंने परस्पर हाथ मिलाया और पैर छूकर ताल ठोंका। फिर भुजाओं से कंधों पर प्रचण्ड आघात किया। धीरे धीरे दोनों लिपट गये। तरह तरह के दाँव पेंच खेलने लगे। एक दूसरे को बगल में दबाकर बलपूर्वक पीस डालने और जमीन पर पटक देने की कोशिश होने लगी। इसके बाद बल में एक दूसरे को बराबर समझ कर दोनों वीर थाड़ी देर नक गम्भीर गर्जना करके एक दूसरे को ऋद्ध हुए सिंह की तरह देखते रहे। फिर घूसबाजी करते हुए भुजाओं के द्वारा ऊपर, नीच, आगे, पीछ, इधर, उधर खींचकर एक दूसरे को जीतने का उद्योग करने लगे। धीरे धीरे दोनों वीर क्रोध से पागल हो उठे। वे प्रचण्ड घूसेबाजी करने लगे; एक दुसरं को सिर से टक्करें मारने लगे; माथे पर लात मारने तक की चेष्टा करने लगे। युद्ध ने महाभयङ्कर रूप धारण किया। बिना कुछ खाये-पिये दिनरात यह विकट बाहु-युद्ध होता रहा। कृष्ण तो बड़े बुद्धिमान थे। व ताड़ गये कि जरासन्ध कुछ थक गया है। इस बात की सूचना उन्होंने भीमसेन को देनी चाही । भीमसेन को इशारं सं होशियार करने के लिए वे बोले :- हे भीम ! थके हुये शत्रु को पीड़ा पहुँचाना उचित नहीं। यह सुन कर भीम क्रोध से और भी उबल उठे। जरासन्ध कुछ कुछ असावधान था ही कि भीम ने एकदम से अपना सब बल लगाकर उसे उठा लिया । कई बार घुमा कर भीमसेन ने उसको जमीन पर पटका और पीठ पर घुटनं रख उसकी रीढ़ तोड़ दी। रीढ़ तोड़ते ही जरासन्ध का प्राणपक्षी उड़ गया। इसके बाद शत्र का संहार करनेवाले उन तीनां वीरों ने जरासन्ध के मृतक शरीर को वहीं राजद्वार पर छोड़ा और वहाँ से निकल कगगार में पहुँच । वहाँ जितने राजे कैद थे सबको एक साथ छोड़ दिया। वे बड़े प्रसन्न होकर कृष्ण से बाले :- हे वासुदेव ! आपने हमें इस घोर विपद से उद्वार किया। इसके बदले में आपका क्या उपकार करें ? कहिए। कृष्ण बाल :-हे राजगण ! राजा युधिष्ठिर की इच्छा राजसूय यज्ञ करने की है । वे साम्राज्य प्राप्त करने के अभिलाषी हैं। इस काम में आप उनकी महायता कीजिए।