पृष्ठ:सचित्र महाभारत.djvu/९९

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पहला खरड ] पाण्डवों का सबसे बड़ा गजा होना सहदेव ने बड़ी भारी सेना लेकर दक्षिण की यात्रा की। उन्होंने मथुरानरेश, मत्स्यराज, कुन्ति- भोज आदि मित्रों को राजसूय यज्ञ की खबर देकर बहुत सा धन प्राप्त किया। अन्त में वे किष्किन्धा नामक वागरों की नगरी में पहुंचे। वहाँवालों के साथ सहदेव ने लगातार सात दिन तक युद्ध किया । किन्तु वे लोग न तो थके, न घबगये। पर सहदेव की वीरता से प्रसन्न होकर बोले :- जो काम तुम करना चाहते हो उसमें विघ्न डालने की हमारी इच्छा नहीं है। इसलिए तुम ये सब रत्न लेकर यहाँ से प्रस्थान करो। इसके बाद समुद्रकच्छ देश में ठहर कर सहदेव ने दूत के द्वारा द्राविड़, कलिङ्ग, पुरी और यवनपुर आदि के राजों तथा पुलम्त्यनन्दन विभीपण से धन, रत्न आदि उपहार वहीं बैठे बैठे मँगा लिये। महाबली नकुल पश्चिम की तरफ रवाना हुए। पहल गहितक देश में मयूरों से उनका विकट युद्ध हुआ। मयूर युद्ध में हार गये। फिर उन्होंने जैरीषक नामक मम्भूमि और महेश्व नामक धन- धान्य-सम्पन्न देश पर पूरी तौर से अपना अधिकार जमाया। इसके बाद दशार्ग, शिवि, त्रिगत आदि बहुत से देश जीते । अन्त में यादवों से कर लेकर लौट आये। इसी तरह किसी ने प्रीतिपूर्वक, किसी ने हार मान कर, चारों भाइयों को बहुत मा धन दिया। पूर्ण-रूप से विजयी होकर उन लोगों ने चारों दिशाओं से अनन्त धन बड़े कष्ट से इकट्ठा किया। उसे वे अपने अपने साथ खाण्डवप्रस्थ ले आये । इससे युधिष्ठिर बड़े प्रसन्न हुए; भाइयों की बदौलत उनके इच्छित यज्ञ का मामान पूरा हो गया। युधिष्ठिर के मित्र कहने लगे :- आपके यज्ञ करने का अवसर अब आ गया है। इमलिए शीघ्र ही इस शुभ काम को श्रारम्भ कीजिए। यह सलाह हो ही रही थी कि युधिष्ठिर के दिग्विजय और साम्राज्य पाने का हाल सुनकर यादवों की तरफ़ से बहुत सा धन-रन-रूपी कर लिये हुए श्रीकृष्णजी खाण्डवप्रस्थ आ पहुँचे। उनके साथ उनकी चतुरंगिनी सेना भी थी। उसके सेनापति वसुदेव जी थे। .. ___ चारों भाइयों और धौम्य पुरोहित से घिरे हुए धर्मराज युधिष्ठिर, कुशल-समाचार पूछ कर, सुख से बैठे हुए कृष्ण से बोले :- हे वासुदेव ! केवल तुम्हारे अनुग्रह से यह पृथ्वी समुद्र के किनारे तक हमारे वश में हुई है। अब हम यही चाहते हैं कि तुम्हारे और भाइयों के साथ मिल कर यज्ञ करें। इसलिए काम आरम्भ करने की अनुमति देकर हमें कृतार्थ करो। यह सुन कर कृष्ण ने जी भर कर युधिष्ठिर के गुण गाये। फिर वे बोले :- महाराज ! आप ही यह महान् राजसूय यज्ञ करने योग्य हैं। इसलिए शीघ्र ही यज्ञ की दीक्षा लीजिए। आपका यज्ञ समाप्त होने से हम सब कृतार्थ होंगे, आपकी भलाई करने में हम हमेशा ही तत्पर रहे हैं। आप जिस काम के लिए कहेंगे, हम वही करेंगे। युधिष्ठिर ने कहा :-हे कृष्ण ! हमारे भाग्य से जब तुम आगये हो तब हमें अपने इस काम में जरूर ही सिद्धि होगी, इसमें कोई सन्देह नहीं। इसके बाद युधिष्ठिर ने सहदेव और मन्त्रियों को ब्राह्मणों की आज्ञा के अनुसार शीघ्र ही यज्ञ का सब सामान लाने को कहा। युधिष्ठिर की बात समाप्त होने के पहले ही सहदेव नम्रतापूर्वक कहने लमे :- प्रभो! आपकी आज्ञा के पहले ही सब चीजें आ गई है।