पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१०३

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सस्यार्थप्रकाश : ! । ९० अन्निगम्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन आध्यति । वियातपोभ्यांमृतात्मा बुद्धिह्नेल शुध्यति।मनु०५1 १०४ ॥ ! जल से बाहर के आ, सत्याचार से मन, विद्या और धर्मानुष्ठान से जीवात्मा । और शाम से बुद्धि पवित्र होती है । भीतर रागद्वेषादि दोप और बाहर के मलों को दूर कर शुद्ध रहना अर्थात् सत्याSसत्य के विवेकपूर्वक सत्य के प्रहण और असत्य के त्याग से निश्चय पवित्र होता है ( क्षान्ति ) निन्दा स्तुति सुख दुःख शीतोष्ण । झघ मृष हानि लाभ मानापमान आदि हर्ष शोक छोड़ के धर्म से दृढ़ निश्चय रइन ( आर्जव ) कोमलता निरभिमान सरलता सरलस्वभाव रखना कुटिलतादि दोष छोड़ देना ( ज्ञान ) सब वेदादि शास्त्रों को सान्नोपान पढ़के पढ़ाने का सामथ्र्य विवेक सत्य का निर्णय जो वस्तु जैसा हो अर्थात् जड़ को जड़ चेतन को चेतन जानना और मानना ( विज्ञान ) पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को वि शेषता से जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना ( आस्तिक्य ) कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व परजन्म, धमेंविद्या, सत्स, माता, पिता, आचार्य और अतिथि की ? सेवा को न छोड़ना और निन्दा कभी न करना ॥ २ ॥ ये पन्द्रह्म कर्म और गुण श्राह्मण वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहियें ॥ क्षत्रिय प्रजाना क्षण दोनॉमेज्याध्ययमंव च । विषयेष्वसक्तिश्च क्षत्रियस्थ समासतः 7 १॥ मनु०१। ८8 ॥ शर्य तजा भ्रतिदक्ष्यं युद्ध वायपलायनम् । दानमावरभावश्व क्षात्र कम स्वभावज ॥ २ ! भ० गी० अध्याय १८ 1 श्लोक ४३ ॥ न्याय से प्रजा की रक्षा अथात् पक्षपाल छोड़ क श्रेष्ठों का सरकार और दुष्टों का तिरस्कार करना सब प्रकार से सब का पालन ( दान ) विद्या धर्म की प्रवृत्चि t और पदार्थों व्यय ( ) अग्निहोत्रावि सुपात्रों की सेवामें धनादि का करना इज्वा यज्ञ करना ( अध्ययन ) वेदादि शास्त्रों का पढ़ा ( विषये४० ) विषयों में न फंस कर जितेन्द्रिय रइ के सदा शरीर और आत्म से बछवान् रलाII १ ॥ ( शौर्य) सैकडों स इस्तों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना (ते: ) सदा तेजस्वी अत्