पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/११

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५ महामयाख्यानसूत्र, ६ चंदाविजय, ७ गणीविजयसूत्र, ८ मरणासमाधि सूत्र, ९ देवेन्द्रस्तमनसूत्र और १० संसारसूत्र तथा नन्दीपुत्र योगोद्धारसूत्र भी प्रामाणिक मानते हैं । ५ पञ्चाङ्ग, जैसे-१ पूर्व सब ग्रन्थों की टीका, २ निरुक्ति, ३ चरणी, ४ भाष्य, ये चार अवयव और सव मूल मिल के पंचांग कहाते हैं, इनमें ढूंढिया अवयवों को नहीं मानते और इनसे भिन्न भी अनेक ग्रन्थ हैं कि जिनको जैनी लोग मानते है । इनके मत पर विशेष विचार १२ वारहवें समुल्लास में देख लीजिये । जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त दोष हैं और उनका यह भी स्वभाव है कि जो अपना ग्रन्थ दूसरे मत वाले के हाथ में हो वा छपा हो तो कोई २ उस ग्रन्थ को अप्रमाण कहते हैं यह बात उन की मिथ्या है क्योंकि जिसको कोई माने कोई नहीं इससे वह ग्रन्थ जैनमत से बाहर नहीं हो सकता । हां ! जिसको कोई न माने और न कभी किसी जैनी ने माना हो तब तो अग्राह्य हो सकता है परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है कि जिसको कोई भी जैनी न मानता हो इसलिये जो जिस ग्रन्थ को मानता होगा उस ग्रन्थस्थविषयक खण्डन मण्डन भी उसी के लिये समझा जाता है। परन्तु कितने ही ऐसे भी है कि उस ग्रन्थ को मानते जानते हों तो भी सभा वा संवाद में बदल जाते है इसी हेतु से जैन लोग अपने ग्रन्थों को छिपा रखते है और दूसरे मतस्थ को न देते न सुनाते और न पढ़ाते इसलिये कि उनमें ऐसी २ असम्भव बातें भरी हैं जिनका कोई भी उत्तर जैनियों में से नहीं दे सकता । झूठ को छोड़ देना ही उत्तर है ॥

१२ वें समुल्लास में ईसाइयों का मत लिखा है ये लोग बायबिल को अपना धर्मपुस्तक मानते हैं उनका विशेष समाचार उसी १३ तेरहवें समुल्लास में देखिये और १४ चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मतविषय में लिखा है ये लोग कुरान को अपने मत का मूल पुस्तक मानते हैं इन का भी विशेष व्यवहार १४ वें समुल्लास में देखिये । और इसके आगे वैदिक मत के विषय में लिखा है जो कोई इस ग्रन्थकर्ता के तात्पर्य से विरुद्ध मनसा से देखेगा उसको कुछ भी अभिप्राय विदित न होगा क्योंकि वाक्यार्थबोध में चार कारण होते हैं - आकाङ्क्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य । जब इन चारों बातों पर ध्यान देकर जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है, तब उस को ग्रन्थ का अभिप्राय यथायोग्य विदित होता है । "आकाङ्क्षा" किसी विषय पर वक्ता की और