पृष्ठ:सत्यार्थ प्रकाश.pdf/१११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

८ सत्याधमुकाम : 11 A पुरुषा वहवो राजन् सतत प्रियवादिन: । अप्रियस्य त्रु पय्यस्य वक्ता ओोता च दुर्लभ: ॥ उद्योगप विदुरनोतe tt हे धृतराष्ट्र! इस संसार में दूसरे को निरन्तर प्रसन्न करने के लिये प्रिय बोल- नेवाले प्रशंसक लोग बहुत हैं परन्तु सुनने में अप्रिय विदित हो और वह कल्याण करनेवाला वचन हो उसका कहने और सुननेवाला पुरुष दुर्लभ है 1 क्योंकि सत्पुरुओं को योग्य है कि मुख़ के सामने दूसरे का दोष कहना और अपना दोष मुनना परोक्ष में दूसरे के गुण सदा कहना और दुष्टों की यही रीति है कि सम्मुख में शुण कऋना र परोक्ष में दोषी का प्रकाश करना, जबतक मनुष्य दूसरे से अपने ढोप नहीं कहता तबतक मनुष्य दोषों से छूटकर गुणी नहीं हो सकता । कभी किसी की निन्दा न करे जैसे - 'गुणेयु दोषारोपणमस्या अर्थात् दोपेयुगुणारोपणमप्यसूयार’ ‘गुऐयु मु णारोपण दापणु दोषारोपण व स्तुति. जो गुणों में दीप दायों में गुण लगाना व निन्टा और गुर्यो में गुण दोप में दोपों का कथन करना स्तुति कहती है अर्थात् मियाभापण का नाम निन्दा और सरयभाषण का नाम स्तुति है ! बुदियुद्धिकराण्याशु धन्यानि व हितानि च। निर्य शास्त्राण्यवेक्षत निगमश्रौब वैदिका ॥ १ ॥ यथा यथा हि पुरुः श'वं समधिगच्छति । तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते ॥ २ ॥ । मनु° ४ 1 १९ २० It को प्रतिर धन iर हित की वृद्धि करनेहारे शाण और खेद हैं उनको ग्यि दूमें और सुनायें नश्रम में पढ़े हों उनको श्री पुरुप नित्य विचार। और पclपा करें 7 ३ ॥ स्i कि ने २ रमुग्य ठों को यथावत जाना में से २ इस दिन , का 6िइन थद्र मा जता और उद्यम , रुचि घटती रहती है ।२ ॥ पया या अन्य व सर्वद | मृयां पिच्चई न व गथक्ति हय॥ १ : मनु०४२१ ll |